SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २२७ वन्दन आवश्यक का यथाविधि पालन करने से विनय की प्राप्ति होती है। जैनधर्म के अनुसार वीतराग देव तथा द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार के चारित्र से युक्त पंचमहाव्रतधारी त्यागी गुरु आदि ही वन्दनीय है । उनको भावपूर्वक वन्दन करने से साधक आत्मा अपना आत्मकल्याण कर सकती है। आचार्य जिनदासगणि ने आवश्कचूर्णि में द्रव्यवन्दन और भाववन्दन के विषय में एक कथानक दिया है, वह इस प्रकार है- बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के दर्शन के लिए वासुदेव श्रीकृष्ण और उनके मित्र वीरकौलिक दोनों गए । श्रीकृष्ण ने भगवान् अरिष्टनेमि और अन्य सभी साधुओं को बहुत ही निर्मलभाव से श्रद्धापूर्वक वन्दन किया। वीरकौलिक ने भी श्रीकृष्ण का अनुसरण करते हुए श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए उनको वन्दन किया । वन्दन का फल बताते हुए तीर्थंकर नेमि ने कहा- “श्रीकृष्ण! तुमने बढ़ते हुए शुद्ध परिणाम से भाववन्दन किया है, अतः तुमने क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त किया और साथ में तीर्थंकरगोत्र की शुभ प्रकृति का बन्ध भी किया। इतना ही नहीं तुमने चार नरक के बन्धन भी तोड़ दिए हैं, परन्तु वीरक ने भावशून्य वन्दन किया है, अतः उसका वन्दन द्रव्यवन्दन होने से निष्फल है, क्योंकि भाववन्दन ही आत्मशुद्धि का मार्ग है । " (8) प्रतिक्रमण आवश्यक : मनुष्यमात्र भूल का पात्र है, इसी बात को शास्त्रकारों ने इस प्रकार कहा है कि छद्मस्थमात्र भूल का पात्र है, तो भूल का प्रतिकार भी छदम्स्थमात्र को अनिवार्य है। भूल रूपी विष का प्रतिकार शुभभाव रूप अमृत से ही हो सकता है। प्रतिक्रमण की क्रिया भूल रूपी विष को बढ़ने से रोकती है। प्रतिक्रमण आध्यात्मिक साधना का प्राण है। जो पाप मन से, वचन से और काया से स्वयं किए जाते हैं, दूसरों के द्वारा करवाए जाते हैं एवं दूसरों के द्वारा किए गए पापों की अनुमोदना की जाती है- इन सब पापों की निवृत्ति के लिए आलोचना करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बताते हुए कहा है कि ‘प्रतीपं क्रमणं-प्रतिक्रमणम्', अर्थात् शुभयोगों से अशुभयोगों में गए हुए अपने-आपको पुनः शुभयोगों में ले आना प्रतिक्रमण है । ३६५ आचार्य हरिभद्र ने भी आवश्यक सूत्र की टीका में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए कहा है ३६५ शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम । - योगशास्त्र (तृतीय प्रकाश की वृत्ति) - आ. हेमचन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy