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________________ २२६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री समभावरूप सामायिक को जिन्होंने पूर्णतया सिद्ध कर लिया है, जो त्याग - वैराग्य के, संयम - साधना के महान आदर्श हैं, उनकी स्तुति करना, उनके गुणों का स्मरण करना - यह चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक कहलाता है। तीर्थंकरों की स्तुति करने से साधक को महान् आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है, उसका साधनामार्ग प्रशस्त होता है । घोर अंधकार को अगर धक्का मारें, तो वह दूर नहीं होगा, उसे दूर करने के लिए एक दीपक लाकर रख दें, तो वह अपने आप दूर हो जाएगा। तीर्थंकर दीपक के समान हैं। अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए तीर्थंकरों की स्तुति करना चाहिए । उ. यशोविजयजी ने चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करते हुए तीन चौबीसी की रचना की है। लोगस्ससूत्र भी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुतिरूप है, इसलिए इसे भी चतुर्विंशति स्तव कहते हैं। आचार्य भद्रबाहुस्वामी कहते हैं“तीर्थंकरों की स्तुति पूर्वसंचित कर्मों को नष्ट करती है । ३६३ यदि हम अपने हृदय में परमात्मा को स्थापित करेंगे, तो आत्मा अपूर्व त्याग - वैराग्य की भावनाओं से आलोकित हो उठेगी। बावना चन्दन के वन में अनेकों जहरीले सर्प रहते हैं और यदि उनको भगाना है, तो उस वन में एक-दो मयूर लाकर छोड़ने पर सभी सर्प भाग जाएंगे। उसी प्रकार अपने मनरूपी बावना चंदन के वन में दोषरूपी जहरीले सर्पों को दूर करने के लिए तीर्थंकरों की स्तुति - भक्ति रूप मयूर अपने हृदय में बसाने पर दोषरूपी सर्प अपने-आप भाग जाएंगे। (3) वन्दन आवश्यक : मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार जिसके द्वारा गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है, वन्दन कहलाता है। भक्ति बिना मात्र भय, लज्जा आदि से किया गया वन्दन निरर्थक है, वह मात्र द्रव्यवन्दन है | पवित्र भावना द्वारा उपयोगपूर्वक किया गया भाववन्दन ही तीसरे आवश्यक का प्राण है। जब तक अहंकार का विसर्जन नहीं हो, तब तक पूज्यों के प्रति विनयभाव नहीं आता है । दशवैकालिक में कहा गया है- “धर्मवृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल एवं रस मोक्ष है । " ,,३६४ ३६३ ३६४ भत्तीइ जिणवराणं खिज्जती पुव्वसंचिया कम्मा - आवश्यक निर्युक्ति - १०७६ मूलाओं खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाओ पच्छा समुर्वेति साहा । साहप्पसाहा विरुति पत्ता तओ से पुप्फं च फलं रसो य ।। - दशवैकालिक - ६/२/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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