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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २२५ (१) सामायिक आवश्यक : सम् उपसर्गपूर्वक गति अर्थवाली 'इण्' धातु से मिलकर 'समय' शब्द बनता है। सम का अर्थ एक समान भाव और अय् का अर्थ है गमन करना। समभाव के द्वारा बाह्य परिणति से वापस मुड़कर आत्मा की ओर जो गमन किया जाता है, उसे समय कहते हैं। समय का भाव सामायिक होता है। समभावरूप सामायिक के धारण करने से मानव जीवन तनावयुक्त नहीं होता है, क्योंकि संसार में जो कुछ भी मानसिक वाचिक एवं कायिक का अशान्ति होती है, वह सब विषमभाव से ही उत्पन्न होती है और ऐसा विषमभाव सामायिक में नहीं होता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "बिना जूता या चप्पल पहने कोई व्यक्ति गाँव में काँटों के मार्ग पर पैदल चलते हुए जो पीड़ा का अनुभव करता है, वह पीड़ा रथ या वाहन में बैठा हुआ व्यक्ति अनुभव नहीं करता है। उसी प्रकार ज्ञान और क्रियारूपी दो घोड़ों से युक्त समतारूपी रथ में आरूढ़ व्यक्ति, समतारूपी रथरहित व्यक्ति की तरह मोक्षमार्ग में अरति की पीड़ा अनुभव नहीं करता है।"३६१ सामायिक की साधना वह साधना है, जिसमें प्रतिक्षण कर्मों के समूह के समूह सहज ही नष्ट हो जाते हैं। सामायिक में साधक सभी सावद्ययोगों का त्याग करता है तथा छ:काय के जीवों के प्रति संयत होता है। आचार्य भद्रबाहु ने सामायिक के तीन भेद बताए हैं- १. सम्यक्त्व-सामायिक २. श्रुत-सामायिक और ३. चारित्र-सामायिक। २६२ सम्यक्त्व-सामायिक से श्रद्धा की शुद्धि होती है, श्रुत सामायिक से विचारों की शुद्धि होती है और चारित्र-सामायिक से आचार की शुद्धि होती है। धर्मक्षेत्र की जितनी भी अन्य साधनाएँ हैं, उन सबका मूल सामायिक ही है। (२) चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक : मंजिल पर पहुँचने के लिए जिस प्रकार मार्ग का आलंबन लेना पड़ता है, उसी प्रकार सामायिक साधना के लिए आलम्बनरूप दूसरा आवश्यक चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है। इसका दूसरा नाम, अनुयोगद्वार में उत्कीर्तन भी है। ___ ज्ञानक्रियाश्वद्वययुक्तसाम्यरथाधिरूढ़: शिवमार्गगामी। न ग्रामपूः कण्टकजारतीनां जनोऽनुपानत्क इवार्तिमेति ।।१।। अध्यात्मोपनिषद् ४/१-3. यशोविजयजी सामाइयं च तिविहं, सम्मत्त सुयं तहा चरितं च ।-आवश्यकनियुक्ति-७६६-आ. भद्रवाहु 3८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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