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________________ २२४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री अनादिकाल से जीव को स्वच्छंदाचार पसंद है, इसलिए जीव को ज्ञान की बात मीठी लगती है और क्रिया की बात कड़वी लगती है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- जैसे "जैसे पाग कोउ शिर बाँधे, पहिरन नहीं नहीं लंगोटी, सद्गुरु पास क्रिया बिनु सीखे, आगम बात त्र्यं खोटी"।२८६ नीचे का अंग ढंकने के लिए जिसके पास एक छोटी लंगोट भी नहीं है, वह मस्तक पर पगड़ी बांधकर बाजार में से गुजरे तो हँसी का पात्र बनता है, उसी प्रकार लगे हुए पाप के शुद्धिकरण करने इतनी स्वल्प क्रिया भी जो नहीं करता है और उनकी उपेक्षा करता है तथा ज्ञान की और शास्त्रों की बड़ी-बड़ी बातें करता है, तो बात करने मात्र से उसका शुद्धिकरण या सद्गति नहीं होती है। चौथे गुणस्थान पर सम्यक्त्व प्राप्त होता है और उसका रक्षण करने वाली क्रिया देव-गुरु-संघ की भक्ति और शासनोन्नति की क्रिया है। देशविरति का रक्षण करने वाली क्रियाएँ, गृहस्थ के षट्कर्म, बारहव्रत आदि का पालन है। सर्वविरति का रक्षण करने वाली क्रिया साधु की प्रतिदिन की सामाचारी और प्रतिक्रमण प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ हैं। इन क्रियाओं के अवलंबन बिना ये गुणस्थानक टिक नहीं सकते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त यदि बिना क्रिया के केवल भाव से विशुद्धि मानें तो यह उचित नहीं है। दोष की प्रतिपक्षी ऐसी क्रियाएँ ही उन दोषों का निग्रह कर सकती है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है- “जीव को परमसुख स्वरूप मोक्ष के साथ जोड़ने वाला सभी प्रकार का धर्म व्यापारयोग है।"२६° चारित्रगुण से हीन ज्ञान की अधिकता भी अंधे के सामने लाखों दीपक जलाने के समान निष्फल है? चारित्रयुक्त थोड़ा सा ज्ञान चक्षुसहित व्यक्ति को एक दीपक की तरह प्रकाश करने वाला होता है, इसीलिए जब तक अप्रमत्तगुणस्थान के योग्य उत्कृष्ट धर्मध्यान या शुक्लध्यान की प्राप्ति नहीं हो, तब तक आवश्यक क्रियाओं द्वारा दोषों को दूर करना जरूरी है। उ. यशोविजयजी ने आवश्यक क्रियाओं को क्रियायोग माना है। यह आवश्यक छः प्रकार के होते हैं १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान आवश्यक। ३८६. गु. सा. सं. भाग-१, गाथा -६, पृष्ठ १६२ - उ. यशोविजयजी . योग-२७/१, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी ३६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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