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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २२३
षष्ठ अध्याय क्रियायोग की साधना
क्रियायोग का स्वरूप 'कर्मयोग' या 'क्रियायोग' दो शब्दों के संयोग से बना है 'कर्म' तथा 'योग'। योग शब्द संस्कृत थातु 'युज' से व्युत्पन्न है। युज का अर्थ जोड़ना है। जो क्रियाएँ आत्मा को मोक्ष से जोड़े वे 'कर्मयोग' कहलाती हैं। उ.यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में कर्म तथा ज्ञान के आधार पर योग दो प्रकार का बताया है'कर्मयोग' तथा 'ज्ञानयोग'। उसमें कर्मयोग आवश्यक आदि क्रियाओं के सम्पादनरूप है।२८७
शरीर द्वारा जो-जो भी क्रियाएँ की जाती हैं, वे सभी क्रियाएँ 'कर्मयोग' नहीं कहलाती हैं। उ. यशोविजयजी के अनुसार “शरीर द्वारा जो कुछ छोटी-बड़ी क्रियाएँ होती हैं, उसमें से प्रशस्तभाव से देवगुरु और धर्म के प्रति अनुरागपूर्वक पुण्य का बंध कराने वाली जो आवश्यक क्रियाएँ होती हैं, उन्हें कर्मयोग कहते है।"३८९ साधना में कर्मयोग इसलिए आवश्यक है कि अकर्मण्यता या प्रमाद का निवारण हो सके। आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ने के लिए आलस्य अर्थात प्रमाद का त्याग और वीर्यस्फुरन की अर्थात् पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है। शरीर पर मोह रखने वाले 'क्रियायोग' की साधना नहीं कर सकते हैं। क्रियायोग' वास्तव में एक प्रकार का पुरुषार्थ है, जिससे आध्यात्मिक जीवन को बहुत बल मिलता है।
३८७. कर्मज्ञानविभेदेन स द्विधा तत्र चाऽदिमः।
आवश्यकादिविहित क्रियारूपः प्रकीर्तितः।।२।। - योगाधिकार-१५, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी शरीरस्पंदकर्मात्मा यदयं पुण्यलक्षणम् कर्माऽतनोति सद्रागात् कर्मयोगस्ततः स्मृतः।।३।। - योगाधिकार-१५, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
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