________________
२२०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
राजनैतिक विवादों के हल में स्याद्वाद की उपयोगिता
अनेकान्त का सिद्धान्त केवल दार्शनिक ही नहीं अपितु राजनैतिक दुराग्रहों को भी दूर करके विवादों को सुलझाता है। डॉ. सागरमल जैन८३ लिखते हैं- “आज के राजनैतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यन्त उपादेय है। मानव-जाति ने राजनैतिक जगत में राजतन्त्र से प्रजातन्त्र तक की जो लम्बी यात्रा तय की है, उसकी सार्थकता स्याद्वाददृष्टि को अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्ण होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, आज के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिल सकता है, इस विचारदृष्टि और सहिष्णु भावना में ही प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल रह सकता है, इस दुनिया में कोई पूर्ण नहीं, सभी अधूरे हैं कोई निरपेक्ष नहीं है, सभी सापेक्ष हैं, इसलिए एक दूसरे के विचारों को समझकर उनका सम्मान करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। एक-दूसरे का विरोध करके, एक दूसरे को गिराने के प्रयास में कभी देश का, विश्व का विकास नहीं हो सकता है।" आचार्य अमृतचन्द्र ने एक सुन्दर श्लोक लिखा है -
एकेनाकर्षन्ती श्लघयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।। ग्वालिन बिलौना करती है, तो एक हाथ आगे जाता है और दूसरा पीछे खिसक जाता है और जब दूसरा हाथ आगे आता है, तो पहला पीछे चला जाता है। इसी क्रम से मक्खन प्राप्त होता है। दोनों हाथ यदि एक साथ आगे या पीछे चलें, तो विलौना नहीं होगा, नवनीत नहीं मिलेगा। लोकतन्त्र का विकास इसी गौण मुख्य व्यवस्था के आधार पर हुआ था। एक व्यक्ति मुख्य बनता, तो शेष गौण होकर पीछे चले जाते। दूसरा कोई मुख्यता में आता, तो पहले वाला पीछे खिसक जाता। यह उचित व्यवस्था है। जब एक कुर्सी पर सौ आदमी बैठना चाहें, तो लोकतंत्र की व्यवस्था टूट जाती है। अनेकान्त का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है कि एक मुख्य होगा, शेष सारे गौण हो जाएंगें। इसी आधार पर सापेक्षता का विकास हुआ। जो मुख्य होगा, वह दूसरों की अपेक्षा रख करके चलेगा। वह निरपेक्ष
३८३. डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ - स्याद्वाद और सप्तभंगी एक चिन्तन - डॉ. सागरमल
जैन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org