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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २१६
अन्य दर्शनों में कही हुई बात को उचित अपेक्षा से स्वीकार करने की बात स्याद्वाद कहता है। वेद और उपनिषदों के अलग-अलग वचनों के बीच आते हुए विरोध को भी स्याद्वाद से परिहार कर सकते हैं।
___ अनेकान्त आए बिना तटस्थता नहीं आ सकती है। अनेकान्तवाद को अपनाकर सारे साम्प्रदायिक झगड़े सुलझाए जा सकते हैं। परमयोगी आनंदघन जी३८२ लिखते हैं
षट् दरसण जिनअंग भणीजे, न्याय पंडग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण उपासक षटदर्शन आराधे रे।।१।। जिनसुर पादप पाय बखाणुं, सांख्य जोग दोय भेदे रे। आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे।।२।। भेद अभेद सुगत मीमांसक जिनवर दोय कर भारी रे। लोकालोक अवलंबन भजिये गुरुगमथी अवधारी रे।।३।। लोकायतिक सुख कुख जिनवर की, अंशविचार जो कीजे। तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे।।४।। जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षरन्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे।।५।।
आनंदघनजी ने अन्य दर्शनों को जिनमत के ही अंग कहकर उन्होंने हृदय की विशालता का परिचय दिया। स्याद्वाद को हृदयंगम किए बिना यह बात नहीं कही जा सकती। जिस प्रकार हाथ पैर या किसी भी अंग के कट जाने पर व्यक्ति अपंग हो जाता है, उसी प्रकार किसी भी दर्शन की काट करना, टीका करना अपनी अज्ञानता का परिचय देना है।
विविध और परस्पर विरोध रखने वाली मान्यताओं का विपरीत तथा विघातक विचार श्रेणियों का समन्वय करके सत्य की शोध करना, दार्शनिक क्लेशों को मिटाना सभी धर्मों एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को मोतियों की माला के समान एक ही सूत्र में पिरो देना यही स्याद्वाद की महत्ता हैं।
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नमिनाथ जिनवर स्तवन -आनंदघनचौबीसी - २१ वाँ स्तवन
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