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२१५/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
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विरोधमुक्त बन जाते है।" ३७७ स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकान्तवादी में समन्वय करने का प्रयास करता है। आ. हरिभद्रसूरि का एक ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय है और उस पर उ. यशोविजयजी द्वारा टीका लिखी गई है, उस टीका में विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों का समन्वय किया गया है। उनकी दृष्टि में अनित्यवाद, नित्यवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद आदि सभी वस्तुस्वरूप के आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है, किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है। स्याद्वाद इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही दृष्टि से उसे देखते हैं। स्याद्वाददृष्टि वाले को आग्रह-कदाग्रह नहीं होता है। स्वदर्शन में जो बात कही गई वह अमुक नय की अपेक्षा से कही गई और अन्य दर्शन में कही हुई बात भी अमुक नय की अपेक्षा से सत्य है।
जैसे संसार के भोगों के प्रति तीव्र आसक्ति को तोड़ने की दृष्टि से 'सर्व क्षणिक'- यह बौद्धदर्शन की बात उपयोगी है। पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से भी सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं, नश्वर हैं। जैनदर्शन में भी अनित्यभावना बताई गई है। इस अपेक्षा से स्याद्वादी बौद्धदर्शनों के द्वारा मान्य क्षणिकवाद को स्वीकार करेगा।
उसी प्रकार शास्त्रवार्तासमुच्चय में “आत्मैवेदं सर्वं ३७८ ब्रह्मैवेदं सर्व३७६, सर्वं खल्विदं ब्रह्म८९, जीवोब्रह्मैव नैतरः अर्थात् सभी ब्रह्म हैं, वेदान्तदर्शन की बात को स्वीकार करते हुए हरिभद्रसूरि ने कहा है- “सभी जीवों के प्रति समभाव की प्राप्ति के लिए, दूसरे जीवों के प्रति द्वेष और तिरस्कार के भाव को तोड़ने के लिए, आत्मवत् दृष्टि के विकास के लिए शास्त्रों में अद्वैतवाद बताया है।"३८' अतः संग्रहनय की अपेक्षा से वेदान्तदर्शन की बात भी सही है। जीवत्व की अपेक्षा से सभी जीव समान ही हैं।
३७७. परस्पर विरुद्धा या असंख्या धर्मदृष्टयः
अविरुद्धा भवन्त्येव सम्प्राप्याध्यात्मवेदिनम् ।।२२१।। -अध्यात्मगीता ३७८. छान्दोग्योपनिषद् (७/५/२)
नृसिंहोपनिषद् (२/१७) ३८०. निरालम्बोपनिषद् ३८. समभावप्रसिद्धयेडद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः -शास्त्रवार्तासमुच्चय,
हरिभद्रसूरि (८/८)
३७६.
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