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________________ २१४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री डॉ. सागरमल जैन ३६६ लिखते है कि आर्थिक क्षेत्र मे भी अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जो किसी एक तात्त्विक एकान्तवादी अवधारणा के आधार पर नहीं सुलझाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि हम एकान्तरूप से यह मान लें कि व्यक्ति प्रति समय परिवर्तनशील है, वह वहीं नहीं रहता है, भिन्न हो जाता है, तो आधुनिक शिक्षा-प्रणाली में भी अध्ययन, परीक्षा, प्रमाण-पत्र उसके आधार पर मिलने वाली नौकरी आदि में एकरूपता नहीं होगी। यदि व्यक्ति क्षण-क्षण बदलता ही रहता है तो अध्ययन करने वाला छात्र, परीक्षा देने वाला छात्र, प्रमाण- पत्र पाने वाला छात्र और उन प्रमाण-पत्रों के आधार पर नौकरी प्राप्त करने वाला व्यक्ति भिन्न - भिन्न होगा। इस प्रकार व्यवहार के क्षेत्र में असंगतियाँ होंगी। इसके विपरीत हम यह मान लें कि व्यक्ति में परिवर्तन ही नहीं होता, तो उसके प्रशिक्षण की व्यवस्था निरर्थक होगी। इस प्रकार अनेकान्तदृष्टि ही व्यवहार जगत् की समस्याओं का निराकरण करती है। इसी प्रकार अनेकांतदृष्टि के आधार पर जनकल्याण को लक्ष्य में रखते हुए विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के मध्य संतुलन स्थापित करके पूरे विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है। जिस प्रकार वस्तु अनंतधर्मात्मक है, उसी प्राकर मानव व्यक्तित्त्व भी विविध विशेषताओं का पुंज है। मानव व्यक्तित्त्व भी बहुआयामी है, उसे सही प्रकार से समझने के लिए अनेकान्तदृष्टि की आवश्यकता है। सामाजिक क्षेत्र में भी अनेकान्तदृष्टि हमें यह बताती है कि वैयक्तिक कल्याण में सामाजिक कल्याण और सामाजिक कल्याण मे वैयक्तिक कल्याण समाया हुआ है। दोनों परस्पर भिन्न होते हुए भी एक दूसरे से पृथक नहीं है, अतः दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। अनेकान्तदृष्टि से कौटुम्बिक संघर्ष को भी टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण बनाया जा सकता है। प्रबन्ध के क्षेत्र में बिना अनेकान्तदृष्टि को अपनाए सफल नहीं हुआ जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चाहे, अर्थतंत्र हो या राजतंत्र, या धर्मतंत्र अनेकान्तदृष्टि को स्वीकार किए बिना वह सफल नहीं हो सकता है। वस्तुतः अनेकान्तदृष्टि ही एक ऐसी दृष्टि है, जो मानव के समग्र कल्याण की दिशा में हमें अग्रसर कर सकती है, इस प्रकार अनेकान्त का क्षेत्र इतना अधिक व्यापक है कि कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। FE अनेकान्तवाद सिद्धान्त और व्यवहार पृ. ग्ग्ग्ट डॉ. सागरमल जैन Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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