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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २१५
आग्रह-मुक्ति के लिए अनेकान्तदृष्टि की अपरिहार्यता :
सत्य का आधार अनाग्रह है और असत्य का आधार आग्रह। आग्रह के अनेक प्रकार हैं- साम्प्रदायिक आग्रह, पारिवारिक और सामाजिक आग्रह, जातीय और राष्ट्रीय आग्रह। आग्रह और एकान्त के रोगाणुओं से फैली हुई विभिन्न बीमारियों की एक ही औषधि है और वह है अनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद तीसरा नेत्र है, जिसके खुलते ही राग-द्वेष, दुराग्रह, विलय हो जाते हैं और तदस्थता की भावना जाग्रत होती है। जब तक किसी बात का आग्रह है, तब तक ही झगड़ा है, अशांति है। अनेकांतवाद यही सिखाता है कि पकड़ना नहीं, अकड़ना नहीं और झगड़ना नहीं।
एक विचारक एक दृष्टिकोण को पकड़कर उसका पक्ष करता है, समर्थन करता है, उसके प्रति राग रखता है। दूसरा विचारक दूसरे दृष्टिकोण का पक्ष करता है, समर्थन करता है। पहला विचार दूसरे विचार का खण्डन करता है। दूसरा विचार पहले का खण्डन करता है। इस तरह अपने विचारों की पकड़ मजबूत होती जाती है, आपस में द्वेष बढ़ता जाता है, लेकिन जैसे ही हृदय में अनेकान्तवाद का बीज प्रस्फुटित होता है, वैसे ही अपना विचार छूट जाता है, पराया विचार भी छूट जाता है और केवल सच्चाई रह जाती है। व्यक्ति पूर्ण तटस्थ हो जाता हैं।
एक तपस्वी योगी था। उसकी जटा उलझ गई। वह कंघी लेकर सुलझाने लगा। कंघिया टूटती गई। जटा नहीं सुलझी। भक्त ने कहा महाराज यह जटा जोगी की है, यह कंघियों से नहीं सुलझेगी, यह सुलझेगी उस्तरे से।
अनेकान्त उस्तरा है। वह जोगी की जटा की भाँति उलझी हुई हर क्षेत्र की समस्त समस्याओं को सुलझा देता है।
साम्प्रदायिक आग्रह स्याद्वाद से किस प्रकार दूर किए जा सकते हैं, सर्वप्रथम इसी विषय का विवेचन है।
आज जो साम्प्रदायिक झगड़े बढ़ते जा रहे हैं और मतभेद के साथ-साथ मन भेद भी हो रहे हैं, उसका एक कारण साम्प्रदायिक आग्रह भी है। आचार्य हेमचन्द्र ने वीतरागस्तोत्र में एक बहुत मार्मिक बात कही है कि
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