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२१२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
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चिन्त्यं न चाचिन्त्यं अचिन्त्यं चिन्त्यमेव च ३६३ अर्थात् वह चिंत्य नहीं और अचिंत्य भी नहीं तथा अचिंत्य ही है और चिंत्य ही है। त्रिपुरातापिनी ३६४ में कहा गया है‘अक्षरमहं क्षरमहं’, अर्थात् मैं अविनाशी हूँ, मैं विनाशी हूँ तेजोबिंदु उपनिषद् में बताया गया है- द्वैताद्वैतस्वरूपात्मा द्वैताद्वैतविवर्जितः अर्थात् आत्मा द्वैताद्वैतस्वरूप है और द्वैताद्वैतरहित है । भस्मजाबाल उपनिषद् का वचन है" आत्मा चक्षुरहित होने पर भी विश्वव्यापी चक्षु वाली है, कर्ण रहित होने पर भी सर्वव्यापी कर्णमय है, पैररहित होने पर भी लोकव्यापी है, हाथरहित होने पर भी चारों तरफ है । ३६६
इन सभी वेद एवं उपनिषद् वाक्यों की संगति अनेकांत का आश्रय लिए बिना संभव नहीं है। यदि भारतीय दर्शनों के मूल ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का सम्यक् रूप से अध्ययन किया जाए, तो ऐसे अनेक वाक्य हमें दिखाई देंगे, जो उन दर्शनों की पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकांतदृष्टि को स्पष्ट करते हैं। अनेकांत एक अनुभूत्यात्मक सत्य है, इसे नकारा नहीं जा सकता है।
हरिभद्र के शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका में उ. यशोविजयजी कहते हैं। कि अन्य मतावलम्बियों के मत स्याद्वाद की अपेक्षा एक - एक नय ( दृष्टिकोण) के प्रतिपादक हैं। अतः वे जैनशासन के लिए क्लेशकारक नहीं हो सकते। क्या जटिल ज्वाला की अग्नि से निकले इधर-उधर फैले हुए अग्नि के छोटे-छोटे कण उस अग्नि का पराभव कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं। आगे वे कहते हैं कि चाहे अपने विषदंश से सर्प शीघ्रता से गरुड़ पर विजय प्राप्त कर ले, चाहे हाथी हठवश सिंह को अपने गले में बांध ले एवं अंधकार का समूह सूर्य के अस्त होने का भान कराए, किन्तु स्याद्वाद के विरोधी भी स्याद्वाद का
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मुण्डोपनिषद् (२/१) ब्रह्मबिन्दु (६) त्रिपुरातापिनी (9) तेजोबिंदु उपनिषद् (४ / ६६ ) भस्मजाबाल उपनिषद् (२)
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