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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २११ भिन्न है और न ही अभिन्न है। यहाँ अनेकांतवाद जिस बात को विधिमुख से कह रहा है, वही शंकर उसे निषेधमुख से कह रहे हैं।
निम्बार्कभाष्य की टीका में श्रीनिवास आचार्य कहते हैं- “जगत् और ब्रह्मतत्त्व का परस्पर भेदाभेद स्वाभाविक है। श्रुति, वेद, उपनिषद्, स्मृति स्वरूप शास्त्रों से सिद्ध हैं, इस कारण से उनमें विरोध कैसा?"३५६ इस प्रकार श्रीनिवास आचार्य भी अनेकान्त की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। उपनिषदों में स्याद्वाद का प्रतिबिम्ब :
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “अलग-अलग नयों की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न अर्थों का प्रतिपादन करने वाले वेद भी सार्वतान्त्रिक, सर्वदर्शनव्यापक ऐसे स्याद्वाद का विरोध नहीं कर सकते।"३५७ वेद और उपनिषदों में तो स्याद्वाद का स्पष्ट प्रतिबिंब उपलब्ध होता है
अथर्वशिर उपनिषद् में कहा गया है-'सोऽहं नित्यानित्यो व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माऽहं ३५८ मैं नित्यानित्य हूँ, मैं व्यक्त-अव्यक्त ब्रह्मस्वरूप हूँ।
छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया हैं- “आकाशे रमते आकाशे न रमते"३५६। ऋग्वेद में लिखा है
'नाऽसदासीत नो सदासीत तदानी',३६० अर्थात तब वह असत भी नही था और सत् भी नहीं था। सुबाल उपनिषद में कहा गया है कि न सन्नाऽसन्न
सदसदिति, ३६३
वह सत् नहीं, वह असत् नहीं, वह सदसत् नहीं। मुण्डोपनिषद् का वचन है- 'सदसद्वरेण्यम्' २६२, श्रेष्ठ तत्त्व सदसत् है। ब्रह्मबिंदु में कहा गया है- 'नैव
३५६
जगद-ब्रह्मणोर्भेदाभेदी स्वाभाविको श्रुति-स्मृति-श्रुतसाधितौ भवतः, कः तत्र विरोधः?
__-निम्बार्कभाष्य की टीका-श्रीनिवासाचार्य ब्राणा भिन्नभिन्नार्थान् नयभेदव्यपेक्षया प्रतिक्षिपेयुर्नोवेदाः, स्याद्वादं सार्वतान्त्रिकम् ।।५१।। -अध्यात्मोपनिषद् -१ -उ. यशोविजयजी अथर्वशिर उपनिषद् । छान्दोग्योपनिषद् ४/५/२३ ऋवसूत्रसंग्रह (१०/१२६/१) सुबालोपनिषद् (१/१)
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