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२१०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
कुमारिलभट्ट द्वारा पदार्थ को उत्पत्ति विनाश और स्थितियुक्त मानना अवयवी और अवयव में भेदाभेद मानना, सामान्य और विशेष को सापेक्ष मानना आदि तथ्यों से इस बात को बल मिलता है कि उनके दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं अनेकांत के तत्त्व उपस्थित हैं।
पातंजल योगसूत्र की राजमार्तण्डटीका में भोजदेव ने प्रतिपादित किया है"जैसे रूचक को तोड़कर स्वस्तिक बनाने में सुवर्ण रुचक परिणाम को त्याग करके स्वस्तिक परिणाम को धारण करता है और स्वयं स्वर्ण, स्वर्णरूप में अनुगत ही है। स्वर्ण से कथंचित् अभिन्न ऐसे रुचक तथा स्वस्तिक अपने परिणामों में भिन्न भिन्न हों, किन्तु उनमें सामान्य धर्मीरूप सुवर्ण रहता है।" ३५३ इस प्रकार भोजराजर्षि सामान्य विशेष उभयात्मक वस्तु को सिद्ध करके स्याद्वाद का ही सम्मान करते हैं। वेदान्तदर्शन में स्याद्वाद की स्वीकृति :
उ. यशोविजयजी सभी दर्शनों में स्याद्वाद अन्तर्निहित है- यह सिद्ध करते हुए कहते हैं- "ब्रह्मतत्त्व परमार्थ से बंधनरहित है और व्यवहार से बंधा हुआ है, इस प्रकार कहने वाले वेदान्ती अनेकान्तवाद का अनादर नहीं कर सकते हैं।"३५४ डॉ. सागरमल जैन३५५ लिखते हैं- “आचार्य शंकर सृष्टिकर्ता ईश्वर के प्रसंग में स्वयं ही प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति रूप दो परस्पर विरोधी गुणों को स्वीकारते हैं। वे लिखते है
ईश्वरस्य तु सर्वज्ञत्वात् सर्व शक्तिमत्वात्
महामायत्वाच्च प्रवृत्यप्रवृत्ति न विरुध्यते। पुनः माया को न ब्रह्म से पृथक कहा जा सकता है और न अपृथक्, क्योंकि पृथक् मानने पर अद्वैत खण्डित होता है और अपृथक् मानने पर ब्रह्म माया के कारण विकारी सिद्ध होता है। पुनः माया को न सत् कह सकते हैं और न असत्। यदि माया असत् है, तो सृष्टि कैसे होगी और यदि माया सत् है, तो फिर मुक्ति कैसे होगी? वस्तुतः माया न सत् है और न असत् है। वह न ब्रह्म से
३५३. पातंजलयोगसूत्रटीका राजमार्तण्ड-समाधिपाद सू. १४ १५४. अबद्धं परमार्थेन, बद्धं च व्यवहारतः।।
ब्रवाणो ब्रह्म वेदान्ती, नानेकान्तं, प्रतिक्षिपेत् ।।५० ।। अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी ४५. भारतीय दार्शनिक चिन्तन में अनेकांत - पृ. १२ -डॉ. सागरमल जैन
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