SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २०६ आपके मत की निंदा कर सकते हैं", ३५० अर्थात् उनको अपना मत मान्य रखना है, तो वे अनेकान्त का अपलाप नहीं कर सकते । मीमांसक मुख्य प्रभाकर मिश्र की अनेकांत की स्वीकृति : उ. यशोविजयजी कहते है कि मीमांसकों के सिद्धान्त की मंजिल भी अनेकान्त की नीव पर ही खड़ी है। वे कहते हैं- “जो ज्ञान स्वयं की अपेक्षा प्रत्यक्ष होता है, वही ज्ञान ज्ञेय की अपेक्षा परोक्ष भी होता है। इस प्रकार स्वीकार करने वाले प्रभाकर मिश्र को अनेकान्त का सहारा लेना ही पड़ता है । ३५१ विषय और इन्द्रिय के संनिकर्ष होने पर 'यह घट है'- यहाँ ज्ञान ज्ञानत्व, ज्ञातृत्व और ज्ञेयत्व की अपेक्षा से प्रत्यक्ष ही है, परंतु अनुमान में तीनों का प्रत्यक्ष संभव नहीं है। जैसे मैं घट की अनुमिति करता हूँ, यहाँ ज्ञान तथा ज्ञाता की अपेक्षा प्रत्यक्ष होने पर भी वह ज्ञान विषय (ज्ञेय) की अपेक्षा से परोक्ष भी है। प्रत्यक्षत्व और परोक्षत्व का विरोध होने पर भी दो ज्ञान की कल्पना करना उचित नहीं है, अतः ज्ञातृत्व और ज्ञानत्व की अपेक्षा से प्रत्यक्ष होने पर भी वही ज्ञान ज्ञेयत्व की अपेक्षा से परोक्ष भी होता है, ऐसा प्रभाकर मिश्र स्वीकार करते हैं। अतः एक ही वस्तु में दो विरोधी गुण को अपेक्षाभेद से स्वीकार करना - यही तो स्याद्वाद है। साथ ही उ. यशोविजयजी कुमारिलभट्ट के मत की व्याख्या करते हुए हुए कहते हैं- “वस्तु जाति (सामान्य) और व्यक्ति (विशेष) उभयात्मक है। इस प्रकार अनुभवगम्य बात स्वीकार करने वाले कुमारिलभट्ट भी अनेकांत का अपलाप नहीं कर सकते हैं, " क्योंकि अनेकांत का विरोध करने पर इनको, मान्य वस्तु सामान्य विशेषात्मक है- यह बात असिद्ध हो जाएगी। ३५२ ३५० ३५१ ३५२ सांख्यः प्रधानमुपयंस्त्रिगुणं विचित्रां बौद्धोधियेशिद यन्नथ गौतमीयः । वैशेषिकश्च भुवि चित्रमनेकचित्रं वांछन् मतं न तव निन्दति चेत् सलज्जः ।।४४ ।। - महावीरस्तव ग्रंथ - उ. यशोविजयजी प्रत्यक्षं, मितिमात्रंशे, मैयांशे तद्विलक्षणम् । - गुरुर्ज्ञानं वदन्नेकं, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् । ।४८ ।। अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी जातिव्यक्तयात्मकं वस्तु, वदन्ननुभवोचितम् । भट्टो वाऽपि मुरारिर्वा, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ४६ ॥ अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy