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२०८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
बुद्ध ने या तो मौन का सहारा लिया, या विभज्यावाद को अपनाया, अथवा निषेधमुख से मात्र एकांत का खण्डन किया। डॉ. सागरमल जैन ३४८ लिखते हैं“त्रिपिटक में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं, जहाँ बुद्ध ने एकान्तवाद का निरसन किया है । जब उनसे पूछा गया क्या आत्मा और शरीर भिन्न है ? वे कहते हैं।, मैं ऐसा नहीं कहता। फिर जब यह पूछा गया कि आत्मा और शरीर अभिन्न हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं ऐसा भी नहीं कहता ।
बौद्ध परम्परा में विकसित शून्यवाद तथा जैनपरम्परा में विकसित अनेकान्तवाद - दोनों का ही लक्ष्य एकान्तवादी धारणाओं को अस्वीकार करना था । दोनों में फर्क इतना ही है “ शून्यवाद निषेधपरक शैली को अपनाता है, जबकि अनेकान्तवाद में विधानपरक शैली अपनाई गई है। "
शून्यवाद के प्रमुख ग्रन्थ मध्यमकारिका में नागार्जुन ने लिखा है
"न सद् नासद् न सदसत् न चानुभयात्मकम् । चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदु ।। २४६
अर्थात् परमतत्त्व न सत् है, न असत् है, न सत्-असत् है और न सत्-असत् - दोनों नहीं है। यही बात विधिपरक शैली में जैनाचार्यों ने भी कही हैयदेवतत्तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकं
यदेवसत् तदेवासत् यदेवनित्यं तदेवानित्यम् ।
अर्थात् जो तत्रूप है, वही अतत्रूप भी है, जो एक है, वही अनेक भी है, जो सत् है, वही असत् भी है, जो नित्य है, वही अनित्य भी है।
तात्पर्य यह है कि अनेकांतवाद और शून्यवाद की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ समरूपता है। उ. यशोविजयजी ने महावीरस्तव ग्रंथ में कहा है- “हे वीतराग! इस जगत में त्रिगुणात्मक प्रधान प्रकृति में परस्पर विरोधी गुणों को स्वीकार करने वाले सांख्य, विविध आकार वाली बुद्धि का निरूपण करने वाले बौद्ध, उसी प्रकार अनेक प्रकार के चित्रवर्णवाला चित्ररूप को स्वीकारने वाले नैयायिक तथा वैशेषिक
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भारतीय दार्शनिक चिंतन में अनेकांत, १४, डॉ. सागरमल जैन
माध्यमिककारिका, २/३- नागार्जुन
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