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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २०७ पृथक् गुण तथा द्रव्य और गुण से पृथक् कर्म नहीं होते हैं। यही उनका भेदाभेद है, यही तो अनेकांत है। “३४५
वैशेषिकसूत्र ४६ में भी कहा गया है
"द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च"- द्रव्य, गुण और कर्म को युगपद सामान्य, विशेष, उभय रूप मानना, यही तो अनेकांत है।
__पुनः, वस्तु सत्-असत् रूप है इस तथ्य को भी कनाद महर्षि ने अन्योन्य भाव के प्रसंग से स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि वस्तु स्वस्वरूप की अपेक्षा से अस्तिरूप है और पर स्वरूप की अपेक्षा नास्तिरूप है। यही तो अनेकांत है, वैशेषिकों को भी मान्य है। बौद्धदर्शन में अनेकांतवाद :
उ. यशोविजयजी कहते हैं। कि बौद्धदर्शन भी अनेकान्तवाद से मुक्त नहीं है। वे कहते हैं- "विचित्र आकार वाली वस्तु का एक आकार वाले विज्ञान मे प्रतिबिम्बित होने को मान्य करने वाले प्राज्ञ बौद्ध भी अनेकान्तवाद का अपलाप नहीं कर सकते हैं।"३४७
विभिन्न वर्ण से युक्त पट का जो ज्ञान होता है, वहाँ ज्ञान का स्वरूप तो एक ही है, परंतु वह विविध वर्ण के उल्लेख वाले अनेक आकार से युक्त है। आशय यह है कि ग्राहकत्व रूप से ज्ञान का स्वरूप एक होने पर भी उसमें नील, पीत आदि अनेक रूप भी हैं। यह मान्यता अनेकान्तवाद का अवलम्बन लेने पर ही सम्भव है। अपने सिद्धान्त की नीव में रहे हुए अनेकान्तवाद का तिरस्कार करने का मतलब यही हुआ कि वह तिरस्कार अपने पैरों पर ही कुठार प्रहारतुल्य है।
शाश्वतवाद और उच्छेद्वाद- इन दोनों एकांतों को अस्वीकार करने वाले गौतमबुद्ध की स्याद्वाद में मूक सहमति तो है ही। एकान्तवाद से बचने के लिए
३४१. भारतीय दार्शनिक चिन्तन में अनेकान्त - डॉ. सागरमल जैन ३४६. वैशेषिक सूत्र, १/२/५ ३४७. विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम्
इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्त प्रतिक्षिपेत् ।।४६।। - (अ) अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी (ब) वीतरागस्तोत्रं, ८, आ. हेमचन्द्र
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