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२०६/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
दर्शन प्रकृति में प्रवृत्ति और निवृत्ति - दोनों गुणों को स्वीकार करता है । सांसारिक पुरुषों की अपेक्षा से वह प्रवृत्यात्मक और मुक्तपुरुष की अपेक्षा से निवृत्यात्मक देखी जाती है। इसी प्रकार पुरुष में ज्ञान - अज्ञान, कर्तृत्त्व - अकर्तृत्त्व, भोक्तृत्त्व - अभोक्तृत्त्व के विरोधी गुण रहते हैं। सांख्य दर्शन की इस मान्यता को महाभारत में भी स्पष्ट किया गया है। उसमें लिखा है कि “जो विद्वान् जड़ और चेतन के भेदाभेद को तथा एकत्व और नानात्व को देखता है, वह दुःख से छूट जाता है । " डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं- “जड़ और चेतन का यह भेदाभेद तथा एकत्व में अनेकत्व और अनेकत्व में एकत्व की यह दृष्टि अनेकांतवाद की स्वीकृति के अतिरिक्त और क्या हो सकती है। ” यही भेदाभेद की दृष्टि अनेकांत की आधारभूमि है, जिसे किसी न किसी रूप में सभी दर्शनों को स्वीकार करना होता है।
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दर्शन में स्याद्वाद :
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उ. यशोविजयजी कहते हैं- “जो एक ही वस्तु चित्ररूप या अनेकरूप मानते हैं, वे नैयायिक या वैशेषिक भी अनेकांतवाद का अनादर नहीं कर सकते हैं। जो स्वयं एक ही घट में व्याप्यवृत्ति की अपेक्षा एकचित्ररूप एवं अव्याप्यवृत्ति की अपेक्षा विलक्षण चित्ररूपों को मान्य करते हैं, उनके लिए अनेकान्त का अनादर करना, यानी स्वयं के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। स्याद्वाद के उन्मूलन से उनके अपने मन्तव्य का ही उन्मूलन हो जाएगा । एकानेक रूपों का एक ही धर्मी में समावेश करना ही अनेकान्तवाद की स्वीकृति है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं- " वैशेषिक दर्शन में जैनदर्शन के समान ही प्रारम्भ में जिन तीन पदार्थ की कल्पना की गई, वे द्रव्य, गुण और कर्म हैं, जिन्हें हम जैनदर्शन के द्रव्य, गुण और पर्याय कह सकते हैं। अनुभूति के स्तर पर द्रव्य से
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नैयायिक वैशेषिक
यो विद्वान् सहसंवासं विवासं चैव पश्यति।
तथैवैकत्व नानात्वे स दुःखात् परिमुच्यते ।। १७ । ] आश्वमेधिक, अनुगीता, अ. ३५ वाँ चित्रमेकमनेकंच रूपं प्रामाणिकं वदन् ।
योगो वैशेषिको वाऽपि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् । । ४७ ।।
- (अ) अध्यात्मोपनिषद्, उ. यशोविजयजी ( ब ) वीतरागस्तोत्रं, ८, आचार्य हेमचन्द्र
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