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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २०५
रहता है, अपितु कारण से भिन्न नए कार्य की उत्पत्ति होती है । जहाँ एक प्रकार का एकान्तवाद खड़ा होता है, वहाँ उसका विरोधी एकान्तवाद तुरन्त मुकाबले में खड़ा हो जाता है। सत्यता का दावा करने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष आपस में इतना लड़ते क्यों है? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं, तो दोनों में विरोध क्यों? इससे ज्ञात होता है कि दोनों पूर्णरूप से सत्य तो नहीं हैं, किन्तु ऐसा भी नहीं है कि दोनों पूर्णरूप से मिथ्या हों। एकान्तवादी के सिद्धान्त अपने दुराग्रह के कारण मिथ्यात्व से युक्त हैं। सत्यता एकान्तवाद में नहीं, अपितु अनेकान्तवाद में है। एकान्तवादी दर्शनों के सिद्धान्त किस तरह अनेकान्तवाद में सम्मिलित हैं, इस विषय का सतर्क सम्यक् प्रतिपादन उ. यशोविजयजी ने अपने ग्रंथ अध्यात्मोपनिषद् में किया है। अनेकान्तवाद का क्षेत्र इतना व्यापक है कि किसी भी क्षेत्र में इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- "दही के रूप में जो उत्पन्न हुआ है और वही दूध के रूप में नष्ट हुआ है, तथा वही गोरस के रूप में स्थाई है, इस प्रकार जानते हु भी कौन व्यक्ति ऐसा होगा, जो स्याद्वाद से द्वेष करे ? ३४१ स्थाई ऐसे गोरस में पूर्वकालीन दूध की पर्याय ( अवस्था ) का नाश और उत्तरकालीन दही पर्याय की उत्पत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होने के कारण विरुद्ध नहीं है, अतः वस्तु द्रव्यपर्याय उभयात्मक होने से उत्पादव्ययधोव्यात्मक सिद्ध होती है।
सांख्यदर्शन में स्याद्वाद :
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “सत्व, रजस् और तमस् - इन तीन विरोधी गुणों से युक्त प्रकृतितत्त्व को स्वीकार करने वाले बुद्धिशालियों में मुख्य ऐसा सांख्य अनेकांतवाद का प्रतिक्षेप नहीं करता है, ३४२ 44 क्योंकि स्याद्वाद का विरोध
करने पर उसको मान्य प्रधान प्रकृति तत्त्व का ही उच्छेद हो जाएगा । परस्पर विरोधी गुण-धर्म से युक्त प्रकृतितत्त्व को स्वीकार करना तथा अनेकांतवाद का विरोध करना तो जिस डाली पर बैठे, उसी को काटने जैसा होगा। साथ ही सांख्य
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उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः
गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्यादद्वादद्विड़ जनोऽपि कः । । ४४ । । - अध्यात्मोपनिषद्, उ. यशोविजयजी
इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धेर्गुम्फितं गुणैः
सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेमान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।४६ ।।
- (अ) अध्यात्मोपनिषद्, उ. यशोविजयजी ( ब ) वीतरागस्तोत्रं, ८, आ. हेमचन्द्र
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