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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २०३ प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर साधना के वैयक्तिक पहलू की दृष्टि से मताग्रह वैचारिक आसक्ति या राग का ही रूप है, तो दूसरी ओर साधना के सामाजिक पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक हिंसा है। वैचारिक आसक्ति और वैचारिक हिंसा से मुक्ति के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र में अनाग्रह और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है।"३६ उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है- “जैसे माता को अपने सब बच्चों के प्रति समान स्नेह होता है, ठीक वैसे ही जिस अनेकान्तवाद को सब नयों (दृष्टिकोणों या मतवादी) के प्रति समान दृष्टि होती है, उस स्याद्वादी या अनेकांतवादी को एक नय में हीनता की बुद्धि और अन्य नय के प्रति उच्चता की बद्धि कैसे होगी?" ३४० अर्थात किसी भी नय में हीनता या उच्चता की बुद्धि स्याद्वादी को नहीं होती है। इस प्रकार की निर्मल दृष्टि हो जाने पर व्यक्ति में समत्व का विकास होता है। साधन भिन्न-भिन्न होने पर भी सभी धर्मों का साध्य एक ही है- समत्वलाभ, अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य शान्ति की स्थापना के लिए राग और द्वेष को नष्ट करना। साध्य की अपेक्षा से धर्म एक होने पर भी साधन की अपेक्षा से धर्म अनेक हो सकते हैं, क्योंकि राग और द्वेष के निराकरण के अनेक उपाय हो सकते है। एक ही साध्य की ओर उन्मुख होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते हैं। एक ही केन्द्र से खिंची गई विभिन्न रेखाओं में पारस्परिक विरोध प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में विरोध नहीं होता है, क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है, लेकिन जैसे ही वे केन्द्र का परित्याग करती हैं, तब एक दूसरे को अवश्य काटती हैं, उसी प्रकार सभी धर्मों का साध्य एक ही है, किन्तु उनमें साधनरूपी धर्म की अनेकता स्थित है। साध्य एक होने पर उनमें विरोध कैसा? अनेकान्त का सिद्धान्त धर्मों की साध्यपरक एकता तथा साधनपरक अनेकता को इंगित करते हुए सभी धर्मों में सामंजस्य स्थापित करता है। अनेकान्त की जीवनदृष्टि, पृ. २३ -सौभाग्यमल जैन, डॉ. सागरमल जैन यस्य सर्वत्र समता, नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्तवादस्य, क्व न्यूनाधिकशेमुषी ।।६१।। अध्यात्मोपनिषद १/६२- उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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