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________________ २०२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री उपलब्ध होती है। संजयवेलठ्ठिपुत्र का मन्तव्य बौद्ध ग्रन्थों में निम्न रूप से प्राप्त होता है है? ऐसा नहीं कह सकता। २. नहीं है? ऐसा भी नहीं कह सकता। ३. है भी और नहीं भी? ऐसा भी नहीं कह सकता। ४. न है और न नहीं है? ऐसा भी नहीं कह सकता। इससे यह फलित होता है कि संजयवेलठ्ठिपुत्र भी एकान्तवादी दृष्टि के समर्थक नहीं थे। उपनिषदों में भी हमें सत-असत, उभय व अनुभय, अर्थात् ये चार विकल्प प्रकीर्ण रूप से उपलब्ध होते हैं। औपनिषादिक चिन्तन एवं उसके समानान्तर विकसित श्रमण-परम्परा में यह अनेकान्तदृष्टि किसी न किसी रूप में अवश्य उपस्थित रही है, किन्तु उसके अभिव्यक्ति की शैली भिन्न है। इस युग के बाद भारतीय चिन्तन के दार्शनिक युग में भी विविध दर्शनों ने इस शैली को अपनाया है।"३३७ ब्रह्मानंद ग्रंथ के अद्वैतानंद प्रकरण में विद्यारण्यस्वामी ने कहा है- “घट मिट्टी से भिन्न नहीं है, क्योंकि जब मिट्टी का वियोग होता है, तब घट नहीं दिखता है, उसी प्रकार घट मिट्टी से अभिन्न भी नहीं है, क्योंकि पूर्व में पिंड अवस्था में घट नहीं दिखता है।"३३८ इस प्रकार एक ही घट में भिन्नत्व अभिन्नत्व इन दो विरुद्ध धर्मों को स्वीकार करके स्याद्वाद की पुष्टि की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांतवाद (स्याद्वाद) के बिना अध्यात्म एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है, क्योंकि आध्यात्मिक साधना का मुख्य लक्ष्य राग, द्वेष, आसक्ति, अहंकार, आग्रह की समाप्ति है, साथ ही समता, सहिष्णुता, माध्यस्थभाव, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य आदि भावों का विकास करना है। जहाँ जैन धर्म की साधना का लक्ष्य वीतराग है, वहीं बौद्ध धर्म की साधना का लक्ष्य वीततृष्णा होना माना गया है, इसी प्रकार वेदान्तदर्शन में भी अहं और आसक्ति से मुक्त होना मानव का साध्य बताया गया है, लेकिन जब तक जीवन में आग्रह है, दृष्टिराग है, अन्य दर्शन के प्रति द्वेष है, तब तक अध्यात्मिक क्षेत्र में वीतरागता के लक्ष्य की सिद्धि कैसे होगी ? डॉ. सागरमल जैन ने अनेकान्त जीवनदृष्टि नामक पुस्तिका में लिखा है- “जिन साधना-पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किया गया, उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक हिंसा का ३३७. अनेकान्तवाद स्याद्वाद और सप्तभंगी पृ. xviii डॉ. सागरमल जैन। ३३८. स घटो नो मृदो भिन्नः, वियोगे सत्यनीक्षणात्। नाप्यभिन्नः पुरापिण्डदशायामनवेक्षणात्।। ब्रह्मानन्द, अद्वैतानन्दप्रकरण - पृ. ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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