SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २०१ कृतप्रनाश ( की गई क्रिया का निष्फल होना) तथा अकृत आगम ( स्वयं के द्वारा नहीं की गई क्रिया के फल की प्राप्ति होना) आदि दोष उत्पन्न होंगे, अतः स्यादवादी आत्मा के नित्यानित्य स्वरूप को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार सभी जगह नित्यत्व, अनित्यत्व सिद्ध होने पर भी पदार्थ में एकांतनित्यता या एकांत अनित्यता का आग्रह रखें, तो यह महामोह का उदय है, मूढ़ता है । इसी अभिप्राय से हमेचन्द्राचार्य ने अन्ययोगव्यच्छेद द्वात्रिंशिका में कहा है कि दीपक से लेकर आकाश तक की प्रत्येक वस्तु स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती, नित्यानित्य उभयात्मक है। फिर भी हे वीतराग ! आपकी आज्ञा के द्वेषी ( अनेकांत के द्वेषी ) अन्य दर्शनकार आकाश को एकांतनित्य तथा दीपक को एकांत अनित्य मानते हैं। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में कहा गया है कि जो वस्तु अनेकान्तस्वरूप है, वही नियमा कार्य करती है। भगवान् महावीर द्वारा जितनी भी दृष्टियाँ सामने आती हैं, उतनी ही दृष्टियों से प्रश्न का समाधान किया जाता है। एक दृष्टि से चिन्तन करने पर ऐसा भी हो सकता है लेकिन दूसरी दृष्टि से सोचने पर ऐसा नहीं भी हो सकता है। प्रश्नोत्तर की यह शैली विचारों को सुलझाने वाली शैली है। इस शैली के द्वारा किसी वस्तु के अनेक पहलुओं का ठीक-ठीक पता लग जाता है और उनका विश्लेषण एकांगी नहीं होता है। महावीर ने इस दृष्टि को अनेकान्तवाद या स्याद्वाद कहा और इससे विपरीत दृष्टि को एकान्तवाद का नाम दिया। बुद्ध ने भी इस अनाग्रही दृष्टि को विभज्यवाद का नाम दिया इससे विपरीत दृष्टि को एकांशवाद कहा। जैन साहित्य में आचारांग अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है। इसमें भी हमें "जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा", अर्थात् जो आश्रव के कारण हैं, वे ही निर्जरा के कारण बन जाते हैं और जो निर्जरा के कारण हैं, वे आश्रव के कारण बन जाते हैं- यह कहकर अनेकान्तवाद को ही पुष्ट किया है। अन्य दार्शनिक परम्पराएँ और अनेकान्तवाद डॉ. सागरमल जैन " अनेकान्तवादः सिद्धान्त और व्यवहार" में लिखते हैं- " यह अनेकान्तदृष्टि श्रमण परम्परा के अन्य दार्शनिकों में भी प्रकार भेद से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy