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२००/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
की अपेक्षा से उभयरूप हूँ। आत्मप्रदेश के विचार से मैं अक्षय, अव्यय, अवस्थित हूँ और पर्यायार्थिकनय के आश्रय से मैं अनेक भूतभावी पर्यायस्वरूप हूँ।"
एकधर्मी में भी भिन्न-भिन्न धर्मों की अपेक्षा से एकत्व और अनेकत्व का विरोध नहीं है। एक ही वस्तु में किसी एक गुणधर्म की अपेक्षा एकत्व और गुणधर्मों की अपेक्षा अनेकत्व हो सकता है। इसी प्रकार एक ही धर्मों में नित्यत्व और अनित्यत्व के समावेश का समर्थन करते हुए भगवान् महावीर ने कहा कि आत्मप्रदेशों का न तो कभी नाश होता है और न वे कभी कम या अधिक होते हैं, अतः इन आत्मप्रदेशों से आत्मा अपृथग्भूत होने से इनकी अपेक्षा से आत्मा को अक्षय और अव्यय मानना युक्तिसंगत है, किन्तु पर्यायों की अपेक्षा से अनित्यता भी युक्तिसंगत है, क्योंकि अतीत, अनागत, वर्तमानकालीन विविध विषयक अनेक उपयोग आत्मा से कथंचित भिन्न भी है। पर्याय की अपेक्षा से अनित्यता को स्वीकार करने में भी इसलिए ही कोई बाधा नहीं है।
यदि कोई शंका करे कि परस्पर विरुद्ध नित्यत्व अनित्यत्व आदि धर्मों को एक ही वस्तु में समावेश करने में विरोध क्यों नहीं आएगा? जो वस्तु नित्य है, वही अनित्य कैसे हो सकती है? इसका उत्तर देते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं"जैसे एक ही व्यक्ति में पितत्व, पुत्रत्व आदि भिन्न-भिन्न गुण अपेक्षा से रहे हुए हैं, उनमें कोई विरोध नहीं रहता है, उसी प्रकार एक ही वस्तु में नित्यत्व, अनित्यत्व आदि विरोध नहीं होता है।"
जैसे एक ही राम में लवकुश की अपेक्षा से पित्तृत्त्व तथा दशरथ की अपेक्षा से पुत्रत्त्व, लक्ष्मण आदि की अपेक्षा से भ्रातृत्त्व, सीता की अपेक्षा से पतित्त्व रहा हुआ है और विद्वानों का इसमें कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार द्रव्यत्व की अपेक्षा से आत्मा नित्य और बालावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा से आत्मा अनित्य है। वस्तुतः आत्मा का नित्यानित्य स्वीकार करें, तो ही आध्यात्मिक विकास-यात्रा संभव है।
यदि आत्मा को एकांतनित्य माना जाए, तो ध्यान, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण आदि का विधान तथा हिंसा, झूठ चोरी आदि का निषेध और इनका योगक्षेम करने वाली समिति, गुप्ति आदि क्रियाएँ निरर्थक हो जाएंगी। एकांतनित्य आत्मा में विकार सम्भव नहीं होंगे, अतः ध्यान तप आदि के द्वारा निर्जरा, या संवर संभव नहीं होगा। उसी प्रकार यदि आत्मा को एकांत क्षणिक माना जाए तो भी ध्यान आदि निष्फल होंगे, क्योंकि दूसरे ही क्षण वह आत्मा ही नहीं रहती है, तो फिर ध्यान आदि का फल किसे प्राप्त होगा। आत्मा को एकांतक्षणिक मानने पर
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