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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६६
होता है; ठीक उसी प्रकार आत्मा का ज्ञानस्वभाव समस्त स्व-पर ज्ञेयों को यथावत जानता है, किन्तु उसमें कहीं कुछ भी फेरबदल नहीं करता और ज्ञेय भी अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य रूप नहीं होते। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने अपने स्वभाव में ही विद्यमान है। स्वतंत्र ज्ञेयों को यथावत् जानना ही सम्यग्ज्ञान है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान का कार्य जानने का है; किंत वह ज्ञेय से भिन्न है। ज्ञाता तथा ज्ञान अभिन्न हैं, किंतु ज्ञेय पृथक् है। यह ज्ञान वीतराग विज्ञान भी कहलाता है। इस प्रकार का ज्ञान होने से व्यक्ति में कर्तृत्त्व की बुद्धि समाप्त हो जाती है। वह पदार्थों में अनासक्त रहकर मात्र उसका ज्ञाता-दृष्टा बना रहता है।
अध्यात्म के क्षेत्र में अनेकान्तदृष्टि का स्थान
जैनदर्शन में वस्त को अनंतधर्मात्मक कहा गया है। वस्त की यह तात्त्विक अनंतधर्मात्मकता ही जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त का आधार है। अनेकान्तदृष्टि शुद्ध आध्यात्मिक व्यक्ति को ही उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि जिसमें रागद्वेष आग्रह और पक्षपात नहीं है, वही सच्चे अर्थ में अनेकान्तवादी हो सकता है। आध्यात्मिक साधना अनेकान्त का आधार है। आध्यात्मिक व्यक्ति का व्यवहार और सिद्धान्त अनेकान्त से युक्त होते है। अनेकान्तदृष्टि के बिना न तो अध्यात्म व्याख्या की जा सकती है, और न ही उसकी साधना की जा सकती है। जब अनेकान्तदृष्टि का विकास होता है, तब व्यक्ति के मन में जमा हुआ सारा आग्रह और एकान्तमल धुल जाता है और मन दर्पण के समान निर्मल हो जाता है।
जैनदर्शन में प्राचीन समय से ही आगमों में वस्तुतत्त्व को अनेकान्तिक शैली में परिभाषित किया जाता रहा है। भगवतीसूत्र में विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा पूछे गए अनेक प्रश्नों के उत्तर भगवान महावीर ने स्याद्वादशैली में दिए हैं।
उ. यशोविजयजी ने 'अध्यात्मोपनिषद् के', भगवतीसूत्र में सोमिल द्वारा पूछे गए प्रश्नों के भगवान् महावीर द्वारा दिए गए, उत्तरों की सुंदर ढंग से व्याख्या करते हुए अनेकान्त के सिद्धान्त की पुष्टि की है।
सोमिल ने प्रश्न किया- "हे भगवन् ! आप एक हो, दो हो, अक्षय हो, अव्यय हो, अवस्थित हो, अथवा अनेक भूतभावी पर्यायरूप हो?" स्याद्वाद की सिद्धि के लिए भगवान् ने कहा- “मैं द्रव्य की दृष्टि से एक हूँ और दर्शन-ज्ञान
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