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१६८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
अभिन्नता बताते हुए कहा है- “आत्मा आत्मा में ही शुद्ध आत्मा को आत्मा के द्वारा जानता है । "
आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्ध जानात्यात्मानमात्मना।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ज्ञेय आत्मा से अभिन्न कैसे है ? यहाँ पर ज्ञाता भी आत्मा हो, ज्ञेय भी आत्मा हो और जब ज्ञान भी आत्मा का ही हो, अर्थात् ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तीनों ही आत्मस्वरूप हों, तो वहाँ तीनों में अभेद सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि जब आत्मा स्व को ही जाने, तब ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान-तीनों में अपृथकत्व है, किन्तु जब आत्मा पर को जाने, तब ज्ञेय पदार्थ, ज्ञाता और ज्ञान- दोनों से भिन्न होगा ।
जैसे कुर्सी का ज्ञान आत्मा में ही होता है, किन्तु कुर्सी ज्ञानरूप नहीं है, वह भिन्न है; उसी प्रकार कर्म नोकर्म आदि ज्ञेयों का प्रतिबिम्ब आत्मा में दिखाई देता हैं, किन्तु ये ज्ञाता तथा ज्ञान- दोनों से भिन्न हैं । जैसे दर्पण में अग्नि की ज्वाला दिखाई देती है, वहाँ यह ज्ञान होता है कि ज्वाला तो अग्नि में ही है, वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं है और जो दर्पण में दिखाई दे रही है, वह दर्पण की स्वच्छता ही है; उसी प्रकार “कर्म" तथा " नोकर्म" का प्रतिबिम्ब भी आत्मा की स्वच्छता के कारण उसमे प्रतिभासित होता है । ज्ञेय का प्रतिबिम्ब आत्मा में होता है, अतः उस अपेक्षा ज्ञेय भी आत्मा से अभिन्न है।
उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है- “जिस प्रकार तिमिररोग होने से स्वच्छ आकाश में भी नील, पीत रेखाओं द्वारा मिश्रत्व भासित होता है, उसी प्रकार आत्मा में अविवेक के कारण के विकारों द्वारा मिश्रत्व भासित होता आत्मा तो स्वभाव से ही शुद्ध है।
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इस प्रकार आत्मा का ज्ञायक स्वभाव है और पदार्थों का ज्ञेय स्वभाव है। पदार्थों में बदलाव हो, ऐसा उनका स्वभाव नहीं है और उनके स्वभाव में कुछ बदलाव करें, ऐसा ज्ञान का स्वभाव भी नहीं है। जिस प्रकार आँख नीम को नीमरूप से और गुड़ को गुड़रूप से देखती है, किन्तु नीम को बदलकर गुड़ नहीं बनाती और गुड़ को बदलकर नीम नहीं बनाती और साथ ही वह नीम भी अपना स्वभाव छोड़कर गुड़रूप नहीं होता और गुड़ भी अपना स्वभाव छोड़कर नीम नहीं
३३६ शुद्धेऽपि प्योम्नि तिमिराद् रेखार्भिर्मिश्रमता यथा ।
विकारैर्मिश्रता भाति, तथाऽऽत्मन्यविवेकतः ।। ३ । - विवेकाष्टक - १५, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी
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