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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६७
आचार्य अमृतचंद्र ने प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका में कहा है- “आत्मा से अभिन्न केवल ज्ञान ही सुख है।"३३४ इस व्याख्या से भी यही स्पष्ट होता है कि ज्ञान ज्ञाता से (आत्मा से) भिन्न नहीं है। समयसार की टीका प्रवचनरत्नाकर में भी आत्मा और ज्ञान में तादात्म्य बताया है और कहा गया है कि ज्ञान स्वभाव और आत्मा एक ही वस्तु हैं। दोनों में अन्तर नहीं है। “३३५
आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि 'जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया' अर्थात जो विज्ञाता है, अर्थात् जानने वाला है वही आत्मा
और जो आत्मा है, वही विज्ञाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ज्ञायक गुण या आत्मा अभिन्न है, किन्तु यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ज्ञान ज्ञेय आधारित भी है। ज्ञेय का ज्ञाता से भेद होने के कारण ज्ञान में आत्मा से कथंचित भिन्नता भी है। जैनदर्शन गुण और गुणी में निश्चयनय से अभेद और व्यवहारनय से भेद मानता है। ज्ञान ज्ञाता अभिन्न हैं, किंतु ज्ञेय से भिन्न भी है। इस प्रकार ज्ञाता और ज्ञान में जैनदर्शन भेदाभेद को स्वीकार करता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान आत्मा का लक्षण है और उससे अभिन्न है, लेकिन यहाँ कोई यह प्रश्न करें कि यदि आत्मा का ज्ञान के साथ तादात्म्य है, आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है, तो फिर उसे ज्ञान की उपासना करने की शिक्षा क्यों दी जाती है?
उसका समाधान यह है कि यद्यपि ज्ञान का आत्मा के साथ तादात्म्य है, तथापि अज्ञानदशा में वह एक क्षणमात्र भी शुद्ध ज्ञान का संवेदन नहीं करता है। ज्ञान दो कारणों से प्रकट होता है। बुद्धत्व-काल के परिपक्व होने पर बुद्ध स्वयं ही जान ले, अथवा बोधितत्त्व का कोई दूसरा उपदेश देने वाला मिले, तब जाने। जैसे सोया हुआ व्यक्ति या तो स्वयं जागे, या कोई जगााए, तब जागे। आत्मा तो ज्ञानस्वरूप ही है, परन्तु ज्ञान मिथ्यात्वरूप भी हो सकता है और सम्यक्त्वरूप भी है। ज्ञान पूर्ण भी हो सकता है और अपूर्ण भी।
आत्मा ज्ञान से अभिन्न है, किन्तु ज्ञेय, ज्ञान तथा आत्मा-दोनों से भिन्न है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तीनों की
२४. अनाकुलतां सौख्यलक्षणभूतानात्मनोऽव्यतिरिक्ती
विभ्राणं केवलमेव सौख्यम् । -प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका (१/६० -पृ. ७१) प्रवचनरत्नाकर-भाग-३, २६ पेज
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