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________________ १६६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके आत्मा ज्ञानधन है, इस प्रकार जानना चाहिए।"३३० निश्चय नय से 'आत्मा ज्ञानादिमय' है और व्यवहारनय से आत्मा ज्ञानादि गुण वाली है। वस्तुतः निश्चयनय मुख्य है, किन्तु पदार्थ को समझने के लिए व्यवहारनय की आवश्यकता पड़ती है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "यदि ज्ञानादि गुणों को आत्मा से भिन्न मानो, तो उनके भिन्न होने से स्वरूपतः आत्मा अनात्मरूप सिद्ध हो जाएगी और ज्ञानादि भी जड़ हो जाएंगे।" २३१ आत्मा जो चेतनवंत है, उसमें से ज्ञानादि गुण के निकल जाने पर मृत शरीररूप हो जाएंगे, अर्थात् जड़ बन जाएगी और दूसरी तरफ ज्ञानादि गुण आत्मा से अलग होने पर आधार रहित हो जाएंगे, किंतु ऐसा कभी भी शक्य नहीं है। ज्ञानादि गुण आत्मा के लक्षण हैं, जिन्हें कभी भी आत्मा से पृथक् नहीं किया जा सकता है। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्म उपनिषद में भी कहा है- “आत्मा का ही स्वरूप प्रकाशशक्ति की अपेक्षा से ज्ञान कहलाता है।" ३३२ उ. हर्षवर्धन ने अध्यात्मबिंदु ग्रंथ में बताया कि "जैसे पीलापन, स्निग्धता और गरुत्व स्वर्ण से भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र- इन निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा भिन्न नहीं है। व्यवहारनय से तो ज्ञानादि गुण आत्मा से भिन्न प्रतीत होते हैं। जैसे 'राहु का सिर' इसमें राहु और सिर के बीच में अभेद होने पर भी भेद की प्रतीति होती है, उसी प्रकार आत्मा ज्ञानादि गुणो के अभेद होने पर भी व्यवहारनय से आत्मा और ज्ञानादि गुणों में परस्पर भेद की प्रतीति होती है।"३३३ ३३०. आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकंप मेकोऽस्ति नित्यमवबोधधनः समंतात् ।।१३। समयसार- आ. कुंदकुंद वस्तुतस्तु गुणानां तद्रूपं न स्वात्मनः पृथक् आत्मा स्यादन्यथाऽनात्मा ज्ञानाद्यपि जडं भवेन् ।।११। आत्मनिश्चयाधिकार- अध्यात्मसार प्रकाश शक्त्या यदुपमात्मनो ज्ञानमुच्यते। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी पीत स्निग्ध गुरुत्वानां यथा स्वर्णान्न भिन्नता। तथा दृगज्ञानवृत्तानां निश्चयान्नात्मनो भिदा।। व्यवहारेण तु ज्ञानादीनि भिन्नानि चेतनात्। राहोः शिरोवदप्येषोऽभेदे भेदप्रतीतिकृत्।। -अध्यात्मबिन्दु ३/१०,११, उ. हर्षवर्धन ३३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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