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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १६५
अर्थात् आत्मा गुणी है और ज्ञान गुण है। गुण और गुणी के बीच में हमेशा अभेद होता है। गुण आधार के बिना स्वतंत्र नहीं रह सकते हैं, अतः गुण गुणी से अभिन्न होकर ही रहता है ।
उ. यशोविजयजी ने आत्मा और उसके गुणों में अभिन्नता बताते हुए कहा है- “जैसे रत्न की प्रभा, निर्मलता और शक्ति ( वांछित फल प्रदान करने की चिंतामणि रत्नादि की शक्ति ) रत्न से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन आत्मा से भिन्न नहीं हैं। "" ज्ञाता और ज्ञान- दोनों में भिन्नता नहीं है। पट और उसके तन्तु-दोनों में जैसे तादात्म्य है, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञान में तादात्म्य है। दोनों को एक-दूसरे से पृथक् नहीं कर सकते हैं।
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व्यवहार में हम कहते हैं। कि 'आत्मा का ज्ञान', इस प्रकार यहाँ षष्ठी विभक्ति के प्रत्यय लगाने से ज्ञान और आत्मा का अलग-अलग होने का आभास होता है। वस्तुतः इसमें षष्ठी विभक्ति का प्रयोग व्यवहारमात्र है, वास्तव में तो निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा ही ज्ञान है। ज्ञानादि गुणों के साथ आत्मा की अभिन्नता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं । कि जैसे " घट का रूप " इसमें भेद विकल्प से उत्पन्न हुआ है, उसी प्रकार “ आत्मा के गुण" या 'आत्मा का ज्ञान ' इनमें भेद तात्त्विक नहीं है । '
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'घड़े का रूप या आकार, यह व्यवहारनय से बोला जाता है। यहाँ घड़ा और उसका रूप या आकार इन दोनों में षष्ठी विभक्ति लगाकर भेद सूचित किया गया है, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से घड़ा और उसका रूप दोनों अभिन्न हैं, अलग-अलग नहीं है । इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान- यह कहकर व्यवहार में किसी को समझाने के लिए ‘आत्मा और ज्ञान' अलग-अलग बताने में आया है, किन्तु निश्चयनय से तो आत्मा ही ज्ञान है । 'आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं है अभिन्न ही हैं'- इस बात को आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में पुष्ट किया है। वे कहते हैं कि शुद्धनय से आत्मा की अनुभूति ही ज्ञान की अनुभूति है । यह जानकर तथा
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प्रभानैर्मल्यशक्तीनां यथा रत्नान्न भिन्नता ।
ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां तथात्मनः ॥ ७ ॥ - आत्मनिश्चयाधिकार, १८ - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
घटस्य रूपमित्यत्र यथा भेदो विकल्पजः
आत्मनश्च गुणानां च तथा भेदो न तात्त्विकः ॥ ६ ॥ आत्मनिश्चयाधिकार, अ. सार- उ. यशोविजयजी
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