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१६४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
का कारण न होकर दुःख का ही कारण बनता है। मूल कारण सुख के साधनों के प्रति राग ही है। आत्मज्ञानी जानते हैं कि 'खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुक्खा'।२२६
क्षणिक सुख बहुत काल तक दुःख देने वाला है। पं. हुकुमचन्द्रभारिल्ल२२७ ने लिखा है कि -
मंथन करे दिन रात जल, घृत हाथ में आवे नहीं, रज रत पेले रात दिन, पर तेल ज्यों पावे नहीं। सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा मिलती नहीं व्यापार में
निज आत्मा के भान बिन, त्यों सुख नहीं संसार में।
आत्मज्ञान ही वास्तविक सुख से परिचय करवाता है। आत्मज्ञान के बिना हुआ पदार्थों का ज्ञान तथा भौतिक सुख-दोनों ही अनर्थ का कारण होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे आत्मज्ञान में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे उस जीव का अहंकार मोह, कषाय, राग, द्वेष कम होते जाते हैं। उसकी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ समाप्त होती जाती है। दोषों को दूर होने पर आत्मज्ञानी, वास्तविक सुख, आत्मिक सख को प्राप्त करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मज्ञान ही अमूल्य है, श्रेष्ठ है, अविनाशी है।
ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेदाभेद आत्मज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करने के बाद अब ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान- तीनों में भेदाभेद किस प्रकार है, इसकी व्याख्या की जा रही है। ज्ञाता, अर्थात् जानने वाला। आत्मज्ञान का शाब्दिक अर्थ है जानना, और ज्ञेय, अर्थात् जानने योग्य विषय, आत्मा जानने वाली है, अर्थात् आत्मा ज्ञायक है और ज्ञान ही उसका स्वभाव है। ज्ञान आत्मा से अपृथक् ही है, किन्तु ज्ञेय से भिन्न है। ज्ञाता
और ज्ञेय- दोनों सत्ता की अपेक्षा से अलग-अलग है। उ. यशोविजयजी ज्ञानसार में कहते हैं- "मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ और ज्ञान मेरा गुण है।"
शुद्धात्माद्रव्यमेवाऽहं, शुद्धज्ञान गुणों मम
३२६. उत्तराध्ययन - एलइज्जं - ७/१,२ २७. हुकुमचन्दभारिल्ल- बारहभावना
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