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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १६३
कहते हैं- “आत्मज्ञानी दुःख में दीन नहीं होते हैं, सुख में लीन नहीं होते हैं। वे जानते हैं कि यह पूरा जगत् कर्मविपाक (फल) वश पराधीन है। ३२३
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२. अहंकार का नाश - शरीर, मकान, परिवार, भोजन ही अहंकार का कारण है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “जो आत्मज्ञानी है, वह शरीर के रूप लावण्य, गाँव, बगीचा, धन आदि पर पर्यायों का अभिमान क्या करेगा?" आत्मगुणों में रमण करने वाले आत्मज्ञानी को कर्म - उपाधि से जो प्राप्त हुआ, उसका अहंकार नहीं होता हैं, क्योंकि वह जानता है कि यह सब पर है। जैसे बैंक में केशियर लाखो रुपयों की लेनदेन करता है, करोड़ों रुपए उसके हाथ से गुजरते हैं, किन्तु वह उन्हें देखकर खुश नहीं होता है, उनका अभिमान नहीं करता है, क्योंकि वह जानता है कि यह मेरे नहीं हैं।
३.
वास्तविक सुख की प्राप्ति - आत्मज्ञानी यह जानता है कि सांसारिक भोगों में सुखाभास होता है । परद्रव्यों से कभी भी शाश्वत सनातन सुख नहीं मिल सकता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "जिस प्रकार सूजन आ जाने से कोई पुष्ट हो जाने की कल्पना करे, वध करने के लिए ले जाते हुए पुरुष को माला पहनाने से वह अपने आपको गौरवान्वित महसूस करें, तो यह केवल विभ्रम होगा। आत्मज्ञानी इस विभ्रम में नहीं पड़ता है। भौतिक सुख वास्तविक सुख नहीं है, यह जानते हुए आत्मज्ञानी हमेशा अपनी आत्मा में ही रमण करते हैं।” ३२५
उत्तराध्ययनसूत्र में भी एलक ( बकरा ) के दृष्टान्त से समझाया गया है कि भौतिक सुख के प्रति तीव्र राग कितना भयानक है। जिस प्रकार खा-पीकर हष्ट-पुष्ट हुए बकरे का अन्त में वध कर दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार भौतिक सुख में लुब्ध हुए जीव की हालत होती है। सारे विश्व का ज्ञान प्राप्त करने वाले बड़े-बड़े वैज्ञानिक, धनपति, शिक्षक, डाक्टर, इंजीनियर भी यह नहीं समझ पाए कि भौतिक सुख वास्तविक सुख नहीं है। सुख की सामग्री के प्रति तीव्र राग सुख
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दुखं प्राप्य न दीनः स्यात् सुखं प्राप्य च विस्मितः
मुनिः कर्म विपाकस्य, जानन परवशं जगत् ॥ १ ॥ - कर्मविपाक, २१, ज्ञानसार
शरीर रूप लावण्य ग्रामाऽऽरामधनादिभिः ।
उत्कर्षः परपर्यायै श्चिदानन्दधनस्य कः ।।५- आत्मप्रशंसा - १८ - ज्ञानसार
यथा शोफस्य पुष्टत्वं यथा वा बध्यमण्डनम्
तथा नानन्मवोन्मादमात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् । ६ । । - मौन, १३, ज्ञानसार
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