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१६२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
आध्यात्मिक विकास में आत्मज्ञान ही सहायक होता है। वही ज्ञानसाधना को गति प्रदान कर सकता है। आत्मज्ञान हमें अशांति, राग, द्वेष आदि से बचाता है। उ. यशोविजयजी कहते है- “आत्मज्ञानी कभी कर्मों से लिप्त नहीं होते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि पौद्गलिक भावों का करने वाला, कराने वाला और अनुमोदना करने वाला मैं नहीं हूँ।"१० गीता में कहा गया है- “जो योगी ब्रह्म में मन को रखकर, आसक्ति को छोड़कर क्रियाएँ करते हैं, वे पानी से जैसे कमल का पत्र लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार लिप्त नहीं होते हैं," ३२१ अर्थात् आत्मज्ञानी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता है। वह दुःख में दुःखी और सुख में सुखी नहीं होता है, इसलिए उसके कर्मबन्ध अल्प होते हैं। अध्यात्मबिंदु में भी कहा गया है- “परद्रव्य मेरी मालिकी का नहीं और मैं परद्रव्य का मालिक नही हूँ। इस प्रकार सभी पौद्गलिक भावों को दूर करके जो जीव रहे, तो उसे किस प्रकार कर्मबंध हो सकते हैं।" ३२२ इस प्रकार आत्मज्ञान हो जाने पर व्यक्ति आत्मिक आनंद में ही मग्न रहता है।
__ आत्मज्ञान की श्रेष्ठता निम्नलिखित कारणों से कही गई है१. समत्वभाव की प्राप्ति - जब तक आत्मा को आत्मा का ज्ञान नहीं होगा, तब तक समत्व की अनुभूति नहीं होती है। आत्मज्ञान के प्राप्त हो जाने पर व्यक्ति अनिष्ट संयोग में इष्टवियोग में, अनुकूलता में, प्रतिकूलता में, आधि, व्याधि, उपाधि के संयोगों में शान्ति का अनुभव करता है। विपरीत परिस्थिति में भी आत्मज्ञानी का समत्व भंग नही होता है। जैसे दशरथ ने राम के राज्याभिषेक की घोषणा की और कुछ ही समय बाद उनको वनवास दे दिया। लेकिन आत्मज्ञानी राम को राज्याभिषेक होने पर न आनंद हुआ और न वनवास होने पर दुःख हुआ। दोनों ही परिस्थितियों में उनका समत्व भंग नहीं हुआ। अतः आत्मज्ञान होने पर ही व्यक्ति को समत्व की उपलब्धि होती है। उ. यशोविजयजी
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नाऽहं पुद्गलभावानां कर्ता कारयिताऽपि न । नानुमन्ताऽपि चेत्यात्मानवान लिप्यते कथम् ।। - (अ) निर्लेपाष्टक, २/११, ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी
(ब) अध्यात्मोपनिषद् २. २६-उ. यशोविजयजी ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संग त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रभिवाम्भसा ।।१०।। भगवद्गीता ५/१० न स्वं मम परद्रव्यं नाहं स्वामी परस्य च अपास्येत्यरिवलान् भावान् यद्यास्ते बध्यतेऽथ किम्? -अध्यात्मबिन्दु (३/५)
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