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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६१
आत्मज्ञान की श्रेष्ठता का प्रश्न? आत्मज्ञान और पदार्थज्ञान को जानने के बाद अब प्रश्न यह उठता है कि इन दोनों ज्ञानों में श्रेष्ठ कौन है? यदि आत्मज्ञान श्रेष्ठ है, तो वह किस कारण से? आत्मज्ञान, अर्थात् स्व का ज्ञान, चेतन-सत्ता का ज्ञान।
हम यह प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि चाहे व्यक्ति दुनिया की दृष्टि में एक बहुत बड़ा आदमी हो, बहुत सुखी और सम्पन्न हो, फिर भी वह प्रतिक्षण तनावरहित चित्त कि स्थिरता का अनुभव नहीं करता है। हर समय वह अपने मन को बदलता हुआ ही अनुभव करता है। कभी हर्ष में, कभी शोक में, कभी चिन्ता में, तो कभी भय में, ऐसी विषम परिस्थितियों में वह वास्तविक शांति का अनुभव नहीं कर सकता है। इसका कारण यही है कि यह जीव आत्मज्ञान के अभाव में जड़ को ही सर्वस्व मान रहा है। यह जीव अपनी चेतन सत्ता की अनन्तशक्ति से अपरिचित है।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “धतूरे का पान करने से उन्मादी जीव जिस प्रकार ईंट आदि को भी स्वर्ण मान लेता है ठीक उसी प्रकार अविवेकी आत्मज्ञान के अभाव के कारण जड़ शरीर आदि में आत्मबुद्धि करता है।"३१६
कितने ही ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अणशक्ति का बहुत बड़ा चमत्कार उपस्थित किया। जड़ की शक्ति के विकास में सारी जिन्दगी दाव पर लगा दी, किन्तु आत्मा की अनंतशक्ति के बारे में कभी विचार ही नहीं किया। जड़शक्ति का विकास, जड़ पदार्थों का ज्ञान आत्मज्ञान के अभाव में कभी लाभदायक सिद्ध नहीं होता है।
'जे एगं जाणइ ते सव्वं जाणइ'- जिसने एक आत्मा को जाना उसने सबको जान लिया है, अर्थात जिसे आत्मज्ञान हो गया है, उसे पदार्थज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रहती है और जिसने चाहे सारे जड़ पदार्थों का अध्ययन कर लिया है, किन्तु अपने को नहीं जाना, तो वह जानना नहीं जानने के समान है। मात्र जड़ पदार्थों का ज्ञान अपने आप में कोई महत्त्व नहीं रखता है। आत्मज्ञान के अभाव में जड़ पदार्थों का ज्ञान मात्र एक विडम्बना ही है।
३१.
इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण, पीतोन्मत्तो यथेक्षत्ते। आत्माऽभेदभ्रमस्तद्वद्देहादावविवेकिनः।।५।।- विवेक अष्टक, १५-ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी
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