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________________ १६०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री जैनदर्शन में जड़ और चेतन- दोनों पृथक्-पृथक् द्रव्य माने गए हैं। दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्त्व है और दोनों शाश्वत द्रव्य हैं, किन्तु शाश्वत होकर भी दोनों के गुण-धर्म बिल्कुल अलग हैं। यद्यपि ये दोनों स्वतंत्र द्रव्य हैं, फिर भी अनंतकाल से दोनों का संयोग संबंध है। दोनों का संयोग संबंध होने पर भी आज तक जड़ चेतन रूप नहीं हुआ और चेतन जड़रूप नहीं हुआ। चेतन की सत्ता अलग है और जड़ की सत्ता अलग है। यही बोध पदार्थ और आत्मा का भेदविज्ञान है। जैनदर्शन पदार्थगत ज्ञान को निषेध तो नहीं करता है, किन्तु वह यह मानता है कि उसे भेदविज्ञान में या आत्म अनात्म के विवेक में सहायक होना चाहिए। भेदविज्ञान की विधि यह है कि जो भी मेरे ज्ञान के बाह्य विषय हैं, वे सब मुझसे भिन्न हैं। दूसरे शब्दों में ज्ञाता अलग है और ज्ञेय अलग है। ज्ञाता आत्मा को स्व के रूप में और ज्ञेय पदार्थों को पर के रूप में पहचानना- यही भेदविज्ञान का सार है। भेदविज्ञान से जीव का ममत्व दूर होता है। ममत्व दूर होने पर उसके दुःख-दर्द भी दूर हो जाते हैं, क्योंकि परपदार्थों पर ममत्व रखना ही दुःख का मूल कारण है। पर पदार्थ, अर्थात् बाह्यार्थ से आत्मा की भिन्नता बताते हुए आनंदघनजी उनतीसवें पद मे कहते हैं- "हम दृश्य नहीं, स्पर्श्य नहीं, रसरूप नहीं, गंधरूप नहीं, हम तो आनंदस्वरूप चैतन्यमय मूर्ति हैं।"३१७ . जो दिखता है, वह पुद्गल या पदार्थ और जो देखता है, वह चैतन्य है। उ. यशोविजयजी कहते हैं। कि पुद्गलों के द्वारा पुद्गल तृप्ति प्राप्त करते हैं और आत्मगुणों के द्वारा आत्मा तृप्त होती है। इस कारण से पुद्गल तृप्ति में आत्मतृप्ति घटित नहीं होती है-ऐसा ज्ञानियों का अनुभव है। यह जीव अपनी अनन्तशक्ति से अपरिचित है, मात्र पौद्गलिक-जगत से परिचित है। वह जड़ में रहता है, इसलिए उसे जड़ के सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता है। अनित्य संयोग को उसने अपना स्वभाव मान लिया है, इसलिए दुःखी हो रहा है, अतः उ. यशोविजयजी कहते हैं। कि भेदविज्ञान को समझकर, अर्थात् पदार्थज्ञान और आत्मज्ञान के भेद को जानकर पर पदार्थों से ममत्वत्याग करके अपनी आत्मा की अनंतशक्ति का विकास करें, यही ज्ञानयोग की साधना का सार है।३१८ ३७. ना हम दरसन ना हम परसन, रस न गंध कछु नाहि; आनंदघन चेतनमय मूरति, सेवक जन बलिहारी-उनतीसवां पद- आनंदघन पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्तिं यान्त्यात्मा पुनरात्मना । परतृप्ति समारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते ।।५।।- तृप्ति अष्टक, १०, ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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