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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १८६
पदार्थों पर राग नहीं होता है। " ३१४ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उ. यशोविजयजी ने पुद्गलज्ञान को, अर्थात् बाह्यार्थ के ज्ञान को इन्द्रजाल के समान कहा है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे बाह्यार्थ की सत्ता को अस्वीकार करते हैं। वे बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी यह मानते है कि बाह्यार्थों में जो ममत्त्व का आरोपण किया जाता है, वह मिथ्या है, क्योंकि बाह्य पदार्थ कभी भी अपने नहीं हो सकते हैं। बाह्यार्थ की सत्ता और उनके प्रति अपनेपन का बोध अलग है, अर्थात् बाह्यार्थों में ममत्वबुद्धि या अपनत्व का भाव करना भिन्न है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में ममत्व के नाश करने के हेतु कहा है- “मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ। ज्ञान ही मेरा गुण है, मैं ज्ञान से अन्य नहीं हूँ। अन्य पदार्थ न मेरे हैं और न मैं उनका इस प्रकार का चिन्तन मोह का नाश करने वाला तीव्र शस्त्र है। २३१५
यहाँ हमें यह भी जानना चाहिए कि बाह्यार्थ की अनुभूति आत्मगत होती है, किन्तु बाह्यार्थ की सत्ता आत्मा से भिन्न ही होती है, इसलिए उ. यशोविजयजी कहते हैं- “आत्मदर्शन का आकांक्षी ज्ञान के द्वारा अन्तर्मुखी होता है । चर्मचक्षुओं से दिखाई देने वाले बाह्यार्थों के प्रति ममत्व को वह संसार - परिभ्रमण का कारण मानता है, इसलिए वह बाह्यार्थों को जानते हुए भी उनके प्रति ममत्वभाव का त्याग करता है। ३१६
जैनदर्शन में बाह्यार्थ के रूप में जानने वाले ज्ञान का निषेध नहीं है, किन्तु उस ज्ञान के माध्यम से आत्म-अनात्म का विवेक जाग्रत होना चाहिए | जैनदर्शन में जिस ज्ञान को मोक्ष का हेतु माना गया है, उस ज्ञान को भेदविज्ञान कहा गया है। भेदविज्ञान का अर्थ है कि ज्ञान के माध्यम से स्व और पर का भेद जानना । वस्तुतः जो भी बाह्यार्थ हैं, वे सब मुझसे भिन्न हैं- इस प्रकार उनकी आत्मा से भिन्नता को समझ लेना ही ज्ञान की सार्थकता है।
३१४ आत्मज्ञाने मुनिर्मग्नः सर्वं पुद्गलविभ्रमम्
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महेन्द्रजालवद्वेत्ति नैव तत्रानुरज्यते ।।६।। अध्यात्मोपनिषद्, २/६-उ. यशोविजयजी शुद्धात्मद्रव्यमेवाऽहं शुद्धज्ञानं गुणो मम् ।
नान्योऽहं न ममान्ये चेत्यदो मोहास्त्रमुल्वणम् ।।२ । । - मोहत्यागाष्टक ४, ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी
तेनात्मदर्शनाकाड़ङ्क्षी ज्ञानेनान्तर्मुखो भवेत्
द्रष्टुर्वृगात्मता मुक्तिर्दृश्यैकात्म्यं भवभ्रमः ।।५ । २, अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी
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