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________________ १९५/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री. शुक्लध्यान के पहले प्रकार में ध्याता किसी भी द्रव्य की पर्यायों की उत्पत्ति स्थिति और नाश का ध्यान करता है। इस ध्यान में ध्याता का चित्त एक पर्याय से दूसरे पर्याय में संक्रमण कर सकता है। शक्लध्यान के दसरे प्रकार में चित्त अधिक स्थिर बनता है, निर्वातस्थान पर रखे हुए दीपक की ज्योति के समान निष्कम्प होता है। इसमें केवलद्रव्य की एक ही पर्याय का ध्यान किया जाता है। इस ध्यान में ध्याता, ध्यान तथा ध्येय एकरूप बन जाते हैं। इन दोनों प्रकार के शुक्लध्यानों के ध्याता अप्रमत्त गुणस्थानक वाले चौदह पूर्वधर ही होते हैं तथा ये दोनों प्रकार के ध्यान स्वर्ग की प्राप्ति कराते हैं। शुक्लध्यान का तीसरा पाया सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति हैं। इसमें योगनिरोध की क्रिया प्रारम्भ होती है। यह तेहरवें गुणस्थानक में सयोगीकेवली को ही होता है। आयुष्य पूर्ण होने के पहले केवली मनयोग, वचनयोग तथा बादरकाययोग का निरोध करते हैं, तब शरीर की मात्र श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया बाकी रहती है। तेरहवें गुणस्थानक के अंत में जब साधक सूक्ष्मकाययोग का भी निरोध कर देता है, तब वह अयोगी गुणस्थानक को प्राप्त करता है। वहाँ आत्म-प्रदेश की स्थिरतारूप शुक्लध्यान होने से मेरूपर्वत के समान स्थिर होता हैं। तीसरे तथा चौथे प्रकार का ध्यान अल्पकालीन होता है। इन दोनों ध्यानों का फल मोक्ष है। ध्यान के अंतर्गत ज्ञानधारा में विषयान्तर का संचार नहीं होता है। संयम के प्रारंभ में साधक मुख्यतया ज्ञानयोग की ही साधना करता है। प्रारंभ में प्रधानतया सतत स्वाध्याय में प्रवृत्ति रहती है, जबकि ध्यान के अधिकारी प्रायः उपर की कक्षा के योगी होते हैं। पदार्थ ज्ञान और आत्मज्ञान जब हम ज्ञानयोग की बात करते हैं, तो ज्ञान के दो रूप सामने आते हैं-एक बाह्यार्थ का ज्ञान और दूसरा आत्मज्ञान। जैनदर्शन में जब भी प्रमाणों की चर्चा आई, तब उन्होंने प्रमाण को स्वपरप्रकाशक बताया। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रमाण स्वयं को, और पर को अर्थात् बाह्यार्थ को दोनों को जानता है। ज्ञान ही प्रमाण है, इसलिए ज्ञान भी आत्मसापेक्ष और वस्तुसापेक्ष-दोनों प्रकार का होता है। उ. यशोविजयजी अध्यात्मोपनिषद में कहते हैं- "मुनिजन आत्मज्ञान में ही मग्न रहते हैं और पुद्गल को मात्र इन्द्रजाल के समान जानते हैं, इसलिए उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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