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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १८७ मनवाला है, सुख के प्रति जिसे राग नहीं है, जिसके राग, भय और क्रोध चले गए हैं, वह मुनि स्थिरबुद्धि वाला कहलाता है । ३१ इन लक्षणों से युक्त साधक ही धर्मध्यान के योग्य होता है, इसलिए हम इस प्रकार कह सकते हैं कि गीता के स्थितप्रज्ञ और जैनदर्शन के धर्मध्यानध्याता एक जैसे होते हैं। वस्तुतः : जो धर्मध्यान का ध्याता होता है, वही आगे जाकर अधिक योग्यता प्राप्त होने पर शुक्लध्यान का ध्याता हो सकता है। धर्मध्यान का ध्याता प्रमत्त गुणस्थानक वाला भी हो सकता है और अप्रमत्त गुणस्थानक वाला भी हो सकता है। धर्मध्यान के फल का निर्देश करते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं" शील और संयम से युक्त ऐसे उत्तम धर्मध्यान के ध्याता को उत्कृष्ट पुण्य का अनुबंध होता है और स्वर्गरूपी फल की प्राप्ति होती है। "३१२ वह उच्च देवलोक में जाता है जहाँ मोक्षाभिलाषा और आत्मचिंतन चलता रहता है । उ. यशोविजयजी ने धर्मध्यानी को पहचानने के चार लक्षण बताए हैं, जो निम्नलिखित हैं २. विनय ३. सद्गुण स्तुति ४ अन्तिम तीन शुभ धर्मध्यान के बाद चौथा शुक्लध्यान आता है। यह शुभ और सर्वोत्कृष्ट ध्यान है। उ. यशोविजयजी ने शुक्लध्यान के चार प्रकार या चार पाए बताए हैं। 299 १. आगम श्रद्धा _३१३ लेश्या ३१र 9. सपृथक्त्व, सवितर्क, सविचार २. एकत्व, सवितर्क सविचार सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति ३. ४. समुच्छिन्न ( व्यवच्छिन्न) क्रिया अप्रतिपाति दुखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते । । ६५ ।। भगवद्गीता २ / २ शीलसंयममुक्तस्य ध्यायतो धर्म्यमुत्तमम् । स्वर्गप्राप्तिं फलं प्राहुः प्रौढ़पुण्यानुबंधिनीम् ।। ७२ ।। ध्यानाधिकार, १६, अ. सार- उ. यशोविजयजी ३१३. तीव्रादिभेदभाजः स्युर्लेश्यास्तिस्त्र इहोत्तराः लिंगान्यत्रागमरद्धा विनयः सद्गुण स्तुतिः ॥ ७१ ॥ - वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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