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१८६/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
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विविध प्रकार के विकारों से बचने का विचार करना अपायविचय है । ” ३०७ अपायविचय नामक धर्मध्यान से आर्त्तध्यान रुक जाता है।
विपाकविचय :- इसमें उ. यशोविजयजी ने “ मन, वचन, काया के योग से बंधते कर्म तथा कर्म की प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश तथा शुभ और अशुभ प्रकार के कर्मों का चिंतन करना बताया है। ' शुभ कर्मों के उदय से सुख का अनुभव होता है, अशुभकर्म के उदय से दुःख का अनुभव होता है आदि के विषय में चिंतन करना विपाकविचय कहलाता है।
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संस्थानविचय :- उ. यशोविजयजी संस्थानविचय की परिभाषा देते हुए कहते हैं- “उत्पत्ति, स्थिति और नाश आदि के पर्यायरूप लक्षणों से युक्त लोकसंस्थान का चिंतन करना। संस्थानविचय ध्यान है । " जैसे- इस संसार मे जीवास्तिकाय आदि छः द्रव्य हैं। इन छः द्रव्यों के लक्षण, आकृति, आधार, प्रकार, प्रमाण तथा उत्पाद, व्यय धोव्य युक्त पर्यांयों का चिंतन करना । देवलोक, नरकलोक आदि सहित चौदह राजलोक के विषय में चिंतन कर सकते हैं। संसार एक समुद्र है, चारित्ररूपी जहाज में बैठकर मोक्षनगर में जा सकते हैं। इस प्रकार संस्थानविचय में पदार्थों का चिंतन विस्तार से कर सकते हैं।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “मन और इन्द्रियों पर जिसने विजय प्राप्त कर ली है, ऐसे निर्विकार बुद्धि वाले शान्त और दान्त मुनि ही धर्मध्यान के ध्याता होते हैं।” ३१० वस्तुतः जैनधर्म में जो लक्षण धर्मध्यानी के बताए हैं वैसे ही लक्षण गीता में स्थितप्रज्ञ के बताए गए हैं। उ. यशोविजयजी ने अन्य दर्शनों का भी तलस्पर्शी अध्ययन किया है। उन्होंने अध्यात्मसार में प्रसंगवश भगवद्गीता के भी श्लोक दिए हैं। गीता के दूसरे अध्याय का दूसरा श्लोक अध्यात्मसार में दिया गया है, जिसमें स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताते हुए कहा गया है - "दुःख में जो उद्वेगरहित
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रागद्वेषकषायादिपीड़ितानां जनुष्मताम् ।
ऐहिकामुष्मिकांस्तांस्तान्नापायान् विचिन्तयेत् ।। ३७। वही
ध्यायेत्कर्मविपाकं च तं तं योगानुभावजम् ।
प्रकृत्यादिचतुर्भेदं शुभाशुभविभागतः ।। ३८ ।। ध्यानाधिकार १६, अध्यात्मसार - उ.
यशोविजयजी
उत्पादस्थितिभंगादिपर्यायैर्लक्षणैः पृथक् ।
भेदैनमिदिभिर्लोकसंस्थानं चिन्तयेद्भृतम् ।। ३६ । वही मनश्चेन्द्रियाणां च जयाद्यो निर्विकारधीः ।
धर्मस्थानस्य स ध्याता शान्तो दान्तः प्रकीर्तितः ।। ६२ ।। - वही
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