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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १८५
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"योग के आठ अंग हैं। यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा ध्यान समाधि उसमें से ध्यान का सातवाँ स्थान है। उ. यशोविजयजी ने आगमिक परम्परा के अनुसार ध्यान के चार प्रकार बताए हैं। आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इन चारों ध्यानों में, आर्त्तध्यान रोगादि की चिन्ता तथा इष्ट के संयोग एवं अनिष्ट के वियोग की चिंतारूप तथा रौद्रध्यान, अर्थात् भयंकर हिंसादि के परिणाम- ये दोनों अशुभध्यान हैं और संसार वृद्धि के कारण हैं। यहाँ प्रशस्त ऐसे धर्मध्यान और शुक्लध्यान का ही वर्णन है ।
आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान से बचाने वाला धर्मध्यान ही है। उ. यशोविजयजी ने धर्मध्यान के चार प्रकार बताए हैं। १. आज्ञा २. अपाय ३. विपाक ४. संस्थान ।'
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तत्त्वार्थसूत्र में भी आ. उमास्वाति ने कहा है
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आज्ञाऽपाय- विपाक संस्थान विचयायधर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।।
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान - इनका विचार करने के लिए चित्त को एकाग्र करना धर्मध्यान है । यह धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत को होता है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान वाले जीवों को भी धर्मध्यान सम्भव है।
आज्ञाविचय :- नयभंग और प्रमाण से व्याप्त, हेतु तथा उदाहरण से युक्त, प्रमाणित - ऐसी जिनेश्वर की आज्ञा का ध्यान करना । यहाँ आज्ञा का अर्थ जिनवचन, जिनागम जिनवाणी है।
अपायविचय :- धर्मध्यान का दूसरा प्रकार अपायविचय है। अपाय, अर्थात् कष्ट, अनर्थ, दुःख । उ. यशोविजयजी कहते हैं - " ऐहिक और पारलौकिक ऐसे तमाम दुःखों का मूल रागद्वेष है, अतः राग, द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व से उत्पन्न
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यमनियमासनबंध प्राणायामेंद्रियार्थसंवरणम् ।
ध्यानं ध्येयसमाधि योगाष्टांगानि चेति भजः । । - ध्यानदीपिका - केशरसूरि म.
आर्त्तं रौद्रं च धर्मं च शुक्लं चेतिं चतुर्विधम् ।
तत् स्याद् भेदाविह द्वौ द्वौ कारणं भवमौक्षयोः । । ३ । । - ध्यानाधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तयात् ।
धर्मध्यानोपयुक्तानां ध्यातव्यं स्याच्चतुर्विधम् ।। ३६ ।। - वही
तत्वार्थसूत्र - ६/३७
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