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________________ १८४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री आसन स्वयं के अनुकूल हो, जिससे ध्यान में विज नहीं आए, वही आसन ध्यान के लिए प्रशस्त है।"३०० ध्यानमार्ग की उत्कृष्ट भूमिका पर जो रहे हुए हैं, उनके लिए स्थान, आसन, समय आदि का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है, किन्तु ध्यान की प्रारंभिक अवस्था में स्थानादि का ध्यान रखना आवश्यक है। चित्त की एकाग्रता हो, तो कहीं भी ध्यान हो सकता है, किन्तु सामान्य स्थिति में ध्यान के योग्य स्थल का विचार अपेक्षित है, इसलिए उ. यशोविजयजी ने कहा है- "स्त्री, पश, नपंसक और दुःशील से वर्जित स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है।"३०१ हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र के चौथे अध्ययन में ध्यान कैसे स्थल पर करना चाहिए यह बताते हुए कहा है- “आसनसिद्ध योगी को ध्यान की सिद्धि के लिए तीर्थंकरों की जन्म, दीक्षा, केवलनिर्वाण भूमियों पर जाना चाहिए। उसके अभाव में स्वस्थता के हेतु भूत स्त्री, पशु-पंडक आदि से रहित किसी भी एकांत स्थल का आश्रय लेना चाहिए।"३०१ ज्ञानयोग और ध्यानयोग-दोनों ही स्थिति में साधक अन्तर्मुख होता है। उसका बहिरात्मभाव प्रायः समाप्त हो जाता है। ज्ञानयोगी की अवस्था विशेष ही 'ध्यानयोग' कहलाती है। ज्ञानयोग प्राप्त करने के बाद ध्यानयोग होता है। छद्मस्थ को ध्यान एक विषय पर अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट) तक ही रहता है, जबकि ज्ञानयोग हमेशा रहता है। ध्यानयोग में आसन आदि की अपेक्षा रहती है, जबकि ज्ञानयोग में नहीं। ३०० ३०. ध्यानाय कालोऽपि न कोऽपि निश्चितो यस्मिन् समाधिः समयः स शस्यते ध्यायेन्निषण्ण५ शयितः स्थितोऽथवाऽवस्था जिता ध्यानविधातिनी न या।।१५।। -ध्यानसिद्धि-छठवां प्रकरण, अध्यात्मतत्वालोक, न्यायविजयजी स्त्रीपशुक्लीबदुःशीलवर्जित स्थानमागमे सदा यतीनामाज्ञप्तं ध्यानकाले विशेषतः ।।२६ | Fध्यानाधिकार १६, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी तीर्थवा स्वस्थताहेतुं यत्तद्वा ध्यानसिद्धये कृत्तासनजयो योगि विविक्तं स्थानमाश्रयेत्।।१२३ ।। योगशास्त्र, चतुर्थप्रकाश, आ. हेमचन्द्र ३०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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