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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १८३
उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में ध्यान में लीन होने वाले ज्ञानयोगी के स्वरूप का सुंदर चित्रण किया है- “ज्ञानयोगी जब ध्यान में बैठते हैं, तब वे सुखासन या पद्मासन आदि में (जो उसे सुखप्रद हो ) बैठे हुए होते हैं। उनकी दृष्टि नाक के अग्रभाग पर स्थिर होती है, वे दिशाओं का अवलोकन नहीं करते हैं। उनके देह का मध्यभाग, मस्तक और ग्रीवा सीधी रहती है। ऊपर नीचे के दाँत परस्पर स्पर्श किए हुए रहते हैं और दोनों होठ परस्पर मिले हुए होते हैं। वे ज्ञानयोगी आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग करके धर्मध्यान या शुक्लध्यान में बुद्धि को स्थिर रखने वाले तथा प्रमादरहित होकर ध्यान में तल्लीन होते हैं । २६८
इस प्रकार ज्ञानयोगी की यह विशेष अवस्था ही ध्यानयोग कहलाती है। उ. यशोविजयजी कहते हैं कि जो स्थिर अध्यवसाय है, वह ध्यान है, अर्थात् “ एक ही विषय पर मन की एकाग्रता अंतर्मुहूर्त्त तक रहे, वह ध्यान है और एक विषय से दूसरे विषय पर, दूसरे विषय से तीसरे विषय पर मन की जो बदलती दीर्घ और अविच्छिन्न स्थिति है, वह ध्यान श्रेणी या ध्यानसंतति कहलाती है । २६६
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कोई भी छद्मस्थ व्यक्ति अधिक से अधिक एक विषय पर अन्तर्मुहूर्त्त ( ४८ मिनिट ) ध्यान रख सकता है, इससे अधिक नहीं । अड़तालीस मिनिट बाद उसका ध्यान टूट जाता है। टूटा हुआ ध्यान वापस उसी विषय में या अन्य विषय में लग सकता है। इस प्रकार लंबे समय तक चलते हुए ध्यान को ध्यान की श्रेणी कहते हैं । ।
न्यायविजयजी ने अध्यात्मतत्त्वालोक में कहा है- “ध्यान के लिए कोई समय नियत नहीं है। जब चित्त समाधि में हो, वह समय ध्यान के लिए प्रशस्त है । बैठकर, खड़ा होकर और सोए-सोए भी ध्यान कर सकता है, जो अवस्था या
२६८ निर्भयः स्थिरनासाग्रदृष्टिर्व्रतस्थितः । सुखासनः प्रसन्नास्यो दिशश्चानवलोकयन् देहमध्यशिरोग्रीवमवक्रं धारयन्बुधः । दन्तैरसंस्पृशन् दंतान् सुश्लिष्यधर पल्लवः आर्त्तरौद्रे परित्यज्य धर्मे शुक्ले च दत्तथीः । अप्रमत्ते रतो ध्याने ज्ञानयोगी भवेन्मुनिः- योगाधिकार १५/८०, ८१, ८२ - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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मुहूर्तन्तिभवेद् ध्यानमेकार्थे मनसः स्थितिः ।
बर्थसंक्रमे दीर्घाप्यच्छिन्ना ध्यानसंततिः । । २ । । - ध्यानाधिकार १६ / २ - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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