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________________ १५२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ध्यान और ज्ञानयोग में अन्तर उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में चार प्रकार के योग बताए हैं- १. कर्मयोग २. ज्ञानयोग ३. ध्यानयोग और ४. मुक्तियोग। ये चारों क्रमानुसार हैं। कर्मयोग का अच्छी तरह अभ्यास करके ज्ञानयोग में अच्छी तरह स्थिर होकर ध्यानयोग पर आरूढ़ होकर मुनि मुक्तियोग को प्राप्त कर सकता है।२६६ प्रातिभज्ञान या अनुभवज्ञान को ही ज्ञानयोग कहते हैं। ज्ञानयोग का स्थूल अर्थ इतना ही है कि 'आत्मज्ञान में रमणता'। ज्ञानयोग से ही समता और समाधि प्राप्त होती है। उ. यशोविजयजी अठारहवीं द्वात्रिंशिका के तेईसवें श्लोक की वृत्ति में लिखते हैं-"समता और ध्यान दोनों परस्पर एकदूसरे को उत्कृष्ट बनाने के साधन हैं। सामान्यतः दोनों का हेतु क्षयोपशम विशेष ही है।" २६७ शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार तो प्रातिभज्ञान केवल ज्ञान के अरुणोदयरूप होने से बारहवें गुणस्थान से निम्न गुणस्थान पर नहीं होता है, परंतु उ. यशोविजयजी ने ज्ञानबिन्दु आदि ग्रन्थों में तरतमभाव वाले प्रातिभज्ञान का भी निरूपण किया है, जिसमें निम्न-निम्नतर कक्षा का प्रातिभज्ञान चौथे आदि गुणस्थान में भी संभव है। अध्यात्मतत्त्वालोक में कहा गया है कि शुद्धध्यान का प्रारंभ इसी ज्ञानयोग से होता है। सातवें गुणस्थान में बाह्य क्रियारहित निर्मल ध्यानदशा प्राप्त होने से ज्ञानयोग का प्रादुर्भाव भी वहीं से होता है। ज्ञानयोगी ही ध्यानयोगी होते हैं। जो ज्ञानयोगी होते हैं, वे निर्भय होते हैं। संसार में आकस्मिक दुर्घटनाएँ घट जाती हैं, स्वजन का वियोग हो जाता है, रोगादि का उपद्रव हो जाता है, किन्तु ज्ञानयोगी सभी परिस्थितियों में शोकरहित तथा भयरहित होता है। उसका चित्त अस्वस्थ, व्यग्र या उद्विग्न नहीं होता है। उन्हें किसी पर तिरस्कार या द्वेष नहीं होता है। ऐसा ज्ञानयोगी ही ध्यान के योग्य होता है। २६६. कर्मयोगं समभ्यस्य ज्ञानयोगसमाहितः ध्यानयोगं समारुह्य मुक्तियोगं प्रपद्यते ।।८३ । १५, योगाधिकार-अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी "अप्रकृष्टयोस्तयोमिथ उत्कृष्टयोर्हेतुत्वात् सामान्यतस्तु क्षयोपशमभेदस्यैव हेतुत्वात्" - योगभेद (१८ वी) द्वात्रिंशिका के २३ श्लोक की वृत्ति-उ. यशोविजयजी २६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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