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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १८१
"अल्पबुद्धि के कारण शरीर आदि में आत्मत्व की भ्रमणा हो, तो आत्मा ही ब्रह्म है, यह जानने में पुरुष समर्थ नहीं है।"२६४
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आत्मा के परोक्षज्ञान (शास्त्र ज्ञान) की अपेक्षा आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुभवज्ञान ही हमारी भ्रमणाओं को दूर करने में समर्थ है।
इस अनुभवज्ञान को प्रातिभज्ञान भी कहते हैं। इसके विषय में उ. यशोविजयजी ज्ञानसार में लिखते हैं-"यह अनुभवज्ञान अरुणोदय जैसा है। जैसे अरुणोदय होने पर यह बोध हो जाता है कि अंधेरा नहीं है, वैसे ही अनुभवज्ञान केवल ज्ञान नहीं है, क्योंकि यह क्षायोपशमिक है और सर्वद्रव्यपर्यायविषयक नहीं है, जबकि केवलज्ञान तो क्षायिक और सर्वद्रव्यपर्यायविषयक है। अनुभवज्ञान श्रुतज्ञान भी नहीं है, क्योंकि यह शास्त्रजन्य बोध भी नहीं है, २६५ किंतु जिस तरह अरुणोदय के बाद अल्पसमय में ही सूर्योदय होता है, वैसे ही अनुभवज्ञान के बाद अल्पसमय में ही केवलज्ञान हो जाता है।
उ. यशोविजयजी ने अनुभवज्ञान का समावेश मतिज्ञान में किया है, परन्तु वह मतिज्ञान सामान्य नहीं है। विशिष्ट कोटि की प्रबल विशुद्ध आंतरिक शक्ति से मतिज्ञानावरण के उत्कृष्ट क्षयोपशम से अनुभवज्ञान प्रकट होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शास्त्रज्ञान श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्रकट होता है, जबकि अनुभवज्ञान मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्रकट होता है।
शास्त्रज्ञान और अनुभवज्ञान-दोनों में अन्तर स्पष्ट है। शास्त्रज्ञान शाब्दिक तथा बाह्य है, जबकि अनुभवज्ञान आन्तरिक हैं। शास्त्रज्ञान में केवलज्ञान प्राप्त कराने की सामर्थ्य नहीं है, जबकि अनुभवज्ञान के बाद अवश्य केवलज्ञान होता है। शास्त्रज्ञान परोक्ष है, जबकि अनुभवज्ञान प्रत्यक्ष है।
शास्त्रों को पढ़-पढ़कर मात्र मस्तिष्क को पुस्तकों का वाचनालय बनाने से साधक की प्रगति नहीं होती है। शास्त्रों द्वारा पदार्थ का स्वरूप को जानने के बाद उसकी स्वानुभूति आवश्यक है। यह मात्र ज्ञान नहीं ज्ञानाचार है।
२६४. देहाद्यात्मत्वविभ्रान्तौ जाग्रत्यां न हठात् पुमान्
ब्रह्मात्मत्वेन विज्ञातुं क्षमते मन्दधीत्वतः ।।६/२१/-पंचदशी -विद्यारण्यस्वामी सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां केवलश्रुतयोः पृथक् बुधैरनुभवो दृष्टः केवलाऽर्काऽरुणोदयः ।।१।। -अनुभवाष्टक-ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी
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