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१८०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
प्रकार कहने से उसे चन्द्र की दिशा का पता चलता है; इसे शाखाचन्द्रन्याय कहते हैं। इसी प्रकार अध्यात्मशास्त्र का काम दिशा बताने का है। शास्त्र का ज्ञान परोक्ष बुद्धिरूप है। वह प्रत्यक्ष विषय की शंका को दूर नहीं कर सकता है। जैसे कोई व्यक्ति जादू का खेल देख रहा हो और वह जानता है कि यह सत्य नहीं है, युक्ति है, परंतु प्रत्यक्ष रूप से वह जादू देख रहा है, तो उसे उसमें सत्य का आभास होता है, इसी प्रकार नाटक आदि देखने वाले यह जानते है कि ये घटनाएँ सत्य नहीं है, फिर भी मोहवश नाटक देखने वाले दुःखदर्द की घटनाओं को देखकर रोने लग जाते हैं। हिंसा आदि का दृश्य देखते हुए उत्तेजित हो जाते है। नाटक में कई प्रकार के दृश्यों को देखते हुए, उनके भाव उसी प्रकार के बनते हैं, क्योंकि वे सत्य को परोक्ष रूप में जानते है, लेकिन जो पात्र उसमें भूमिका निभाते हैं, वे सुखी या दुखी नहीं होते हैं, क्योंकि उन्हें सत्यता का प्रत्यक्ष अनुभव है। परोक्षज्ञान से प्रत्यक्षज्ञान बलवान् होता है।
अतः शास्त्रों के द्वारा 'मैं' पत्नी, परिवार, शरीर, धन आदि से बँधा हुआ नहीं हूँ, इनसे भिन्न हूँ, यह जानता है, किन्तु जिसने अनुभवज्ञान द्वारा आत्मा का साक्षात्कार नहीं किया, उसका 'मैं' पत्नी, परिवार, शरीर से बँधा हुआ हूँ- यह भ्रम दूर नहीं होता है। परोक्षज्ञान से प्रत्यक्षज्ञान के बलवान् होने पर शास्त्रजन्य परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष भ्रम को दूर नहीं कर सकता है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए उ. यशोविजयजी ने एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है-"शंख श्वेत है, यह सब जानते हैं, किन्तु किसी व्यक्ति को पीलिया का रोग हो जाता है, तो उसे सभी पदार्थ पीले दिखाई देते हैं। पीलिया का रोगी जब श्वेत शंख को देखता है, तो वह मन से जानता है कि शंख श्वेत है, किन्तु उसे प्रत्यक्ष में वह पीला दिखता है। इस कारण से उसके मन में शंका हो जाती है कि क्या शंख पीला है?२८३ उसी प्रकार आत्मा शुद्ध-बुद्ध निरंजन है, यह बात शास्त्रों से जानने पर भी व्यक्ति के मन की शंका, उसके मिथ्या संस्कार दूर नहीं होते हैं।" वह भ्रम तत्त्वों का चिंतन, मनन, स्मरण करके उसका साक्षात् अनुभव करें, तो ही वे दूर हो पाते हैं, अर्थात् अनुभवज्ञान द्वारा ही अतीन्द्रिय सम्बन्धी भ्रान्तियाँ दूर हो सकती हैं, केवल शास्त्रज्ञान द्वारा नहीं। पंचदशी नामक ग्रन्थ में कहा गया है
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शंखे श्वैत्यानुमानेऽपि दोषात्पीतत्वधीर्यथा । शास्त्रज्ञानेऽपि मिथ्याधीसंस्काराबंधधीस्तथा।।१७६ | आत्मनिश्चयाधिकार १८, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
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