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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १७६
शास्त्र अतीन्द्रिय पदार्थों का सिर्फ स्वरूप ही बता सकते हैं, उसकी अनुभूति नहीं करा सकते, जबकि अनुभवज्ञान के द्वारा साधक, आत्मा में रमण करते हुए उसके आस्वादन में तन्मय हो जाता है। जैसे किसी पुस्तक द्वारा रसगुल्ले बनाने की विधि और उसके स्वरूप को जाना जा सकता है, किन्तु सिर्फ पुस्तक को पढ़कर उसके स्वाद का आनंद नहीं लिया जा सकता है, उसके स्वाद का आनंद तो रसगुल्ले को खाने वाला अनुभवी ही प्राप्त कर सकता है ।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “बुद्धि - कल्पना से शास्त्रों को समझने की मति अनेकों को होती है, जबकि अनुभवरूपी जीभ द्वारा शास्त्रों के रहस्य का आस्वादन करने वाले थोड़े ही होते हैं। शास्त्ररूपी दूधपाक में सभी की कल्पनारूपी चम्मच घूमती है, किन्तु अनुभवरूपी जीभ के द्वारा चखने वाले शास्त्रों के रहस्य को जानने वाले थोड़े ही होते हैं । "
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संत कबीर ने भी कहा है
उन्होंने भी इसी बात को सूचित किया है कि केवल शास्त्रों को पढ़ने से कोई वास्तविक ज्ञानी नहीं हो सकता है। चाहे थोड़ा भी पढ़ा हो, लेकिन पढ़े हुए का अपने जीवन में अनुभव कर लिया है, वही ज्ञानी है ।
उ. यशोविजयजी अध्यात्मसार के आत्मनिश्चयाधिकार में कहते हैं। कि " अध्यात्मशास्त्र भी शाखाचन्द्रन्याय की तरह दिशा बताने वाला है, कारण कि परोक्ष (शाब्दिक ) ज्ञान प्रत्यक्ष विषय की शंका को दूर नहीं कर सकता है । '
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"पोथि पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोई । ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होई । "
अध्यात्मसार में दिशा बताने के लिए शाखाचंद्रन्याय का उल्लेख किया गया है । उदाहरणार्थ आकाश में बीज का चंद्रमाँ हो और वह किसी को दिखाई नहीं दे, तो उसे दिखाने के लिए कोई बड़ा पदार्थ बताने की आवश्यकता होती है, जैसे कहा जाए कि वृक्ष की शाखा के ठीक ऊपर चन्द्र दिखाई दे रहा है, तो इस
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केषां न कल्पनादव, शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी ।
विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ।।५ ।। अनुभवाष्टक, ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी
दिशः प्रदर्शकं शाखाचन्द्रन्यायेन तत्पुनः
प्रत्यक्षविषयां शंकां न हि हन्ति परोक्षधी५ ।।१७५ ।। आत्मनिश्चयाधिकार १८,
अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
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