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________________ १७८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री नहीं करें, तो शास्त्र उसे उस दिशा में हाथ पकड़ कर नहीं चला सकता, गति तो योगी को स्वयं करना होती है। आत्मानुभूति के आधार पर मोक्षमार्ग में उच्चकक्षा की ओर बढ़ते हुए योगी को कोई भी शास्त्र स्वयं के सान्निध्य से लेशमात्र भी उपकार नहीं करता है, क्योंकि उच्च अवस्था में रहे हुए योगी पर उपकार करने का सामर्थ्य शास्त्रों में नहीं है। आत्मानुभूति, अर्थात् अनुभव साध्य 'मोक्षमार्ग की साधना' शब्द का विषय नहीं है। शास्त्र तो शब्दों का समूहमात्र है, इस कारण से शास्त्रों में तथाविध अनुभवगम्य सत्य को बताने का सामर्थ्य नहीं है। केवल शास्त्रों से केवलज्ञान प्राप्त हो जाता, तो चौदह पूर्वो के ज्ञाता निगोद में नहीं जाते। इस तरह शास्त्र को एक सूचनापट की तरह मान सकते हैं। सूचनापट सूचना देता है कि यह रास्ता किस नगर की ओर जा रहा है? क्या आगे कोई खतरा है? उसी प्रकार रास्ते में आते हुए मोड़, घाट, भयस्थान आदि की सूचना देकर पथिक को सावधान करता है, किन्तु उसका कार्य मुसाफिर को आगे बढ़ाने का, या उसके साथ जाने का नहीं है। इतना अवश्य है कि सूचनापट पर लिखी हुई सूचना के अनुसार पथिक आगे बढ़े तो वह निर्विघ्न रूप से अपने इष्टस्थान पर पहुँच जाता है। इसी तरह शास्त्र भी सूचनापट की तरह मोक्षमार्ग की जानकारी देता है, किन्तु जबरन मोक्षमार्ग पर चला नहीं सकता। उ. यशोविजयजी ज्ञानसार के अनुभव अष्टक में अनुभवज्ञान की महत्ता बताते हुए कहते हैं-"सभी शास्त्रों का व्यापार दिशा दिखाने का है, परंतु एक अनुभव ही संसाररूपी समुद्र को पार लगा सकता है। इन्द्रियों से अगोचर सर्व उपाधि से रहित शुद्ध आत्मतत्त्व को शुद्ध अनुभूति बिना सैंकड़ों शास्त्रों की युक्तियों द्वारा भी नहीं समझ सकते हैं। २६० अमूर्त अखंड ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा का ज्ञान तो तत्त्वानुभव में लीन महापुरुष ही कर सकते हैं, परंतु वचन-युक्ति से वाणी-विलास में रमण करने वाले तत्त्वज्ञान का रस चख नहीं सकते, उसका वास्तविक आनंद नहीं ले सकते हैं। REO व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिवप्रदर्शनमेव हि। पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधे।।२।। अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धाऽनुभवं विना शास्त्रयुक्तिशतेनाऽपि, न गमयं यद् बुधा जगुः ।।३।। अनुभवाष्टक २७, ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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