________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १७७
शास्त्रज्ञान और आत्मानुभूति में अंतर शास्त्रज्ञान और आत्मानुभूति में जमीन- आसमान का अन्तर है। शास्त्रज्ञान शाब्दिक ज्ञान है, बाह्य है; जबकि अनुभूतिज्ञान अन्तरंग है। शास्त्रज्ञान और अनुभूतज्ञान में अन्तर स्पष्ट करते हुए उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् के प्रथम प्रकरण के दसवें श्लोक में कहा है- “शास्त्रज्ञान अंधे व्यक्ति के द्वारा हाथ के स्पर्श से होने वाले रूप के ज्ञान के समान है। जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति रूप को अनुभूति करके नहीं, किन्तु स्पर्श के माध्यम से जानता है, उसी प्रकार शास्त्रज्ञान के द्वारा व्यक्ति वस्तुतत्त्व को अनुभव के आधार पर नहीं, मात्र अन्य सूचनाओं के आधार पर जानता है। "२८८ जिस प्रकार एक व्यक्ति तैरने के संबंध में एक आलेख या निबंध को पढ़े और दूसरा व्यक्ति तैरना जानता हो, तो इसमें पहले व्यक्ति का ज्ञान अनुभूति के आधार पर न होकर मात्र सूचना आधारित होता है, जबकि दूसरे व्यक्ति का ज्ञान सूचना पर आधारित न होकर अनुभूति के आधार पर होता है।
जिस प्रकार तैरने के सम्बन्ध में केवल आलेख को पढ़कर यदि कोई नदी में उतर जाए, तो वह डूब जाता है, केवल तैरने सम्बन्धी आलेख पढ़कर नदी पार नहीं कर सकते उसके लिए अनुभव आवश्यक है; उसी प्रकार साधना के क्षेत्र में अनुभूति चाहिए, मात्र शास्त्रज्ञान नहीं अनुभूति के माध्यम से जो आन्तरिक आनंद प्राप्त कर सकते हैं, वह आनंद शास्त्रों को पढ़ने मात्र से नहीं होता है।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “शास्त्र सिर्फ मार्ग दिखाने का काम करता है, लेकिन मार्ग दिखाने के बाद वह साधक के साथ एक कदम भी नहीं चलता है, जबकि अनुभवज्ञान तो जब तक केवलज्ञान नही हो, तब तक साधक का सान्निध्य नहीं छोड़ता है।"२८६ वह छाया की तरह उसके साथ-साथ चलता है। वास्तव में प्रत्येक शास्त्र केवल मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराता है, लेकिन मोक्षमार्ग को जानने के बाद भी कोई व्यक्ति एक कदम भी उस ओर नहीं बढ़ाए, मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति
२८६. अन्तरा केवलज्ञानं छद्मस्थाः खल्वचक्षुषः
हस्तस्पर्शसमं शास्त्रज्ञानं तद्व्यवहारकृत् ।।१०।। -अध्यात्मोपनिषद्-उ. यशोविजयजी २८९
पदमात्रं हि नान्वेति, शास्त्रं दिग्दर्शनोत्तरम् ज्ञानयोगो मुनेः पार्श्वमाकैवल्यं न मुंचति ।।३।। -द्वितीय अधिकार- अध्यात्मोपनिषद्- उ. यशोविजयजी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org