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१७६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
उसे खाये तो यह मनुष्य रूप में आ सकता है। यह बात उस स्त्री ने सुनी किंतु वह संजीवनी औषधि को पहचानती नहीं थी, इसलिए उसने उस जगह पर उगा हुआ सभी चारा बैल को खिला दिया। जैसे ही बैल को चारे के साथ में संजीवनी
औषधि खाने में आई, वह तुरंत मनुष्यरूप हो गया। जिस प्रकार स्त्री की बैल को चारा खिलाने में हितकारी प्रवृत्ति थी, उसी प्रकार भावनाज्ञान वाले की 'स्वसिद्धान्त सभी दर्शनों का समूहरूप है'- इस प्रकार की उत्पन्न हुई बुद्धि के प्रभाव से अन्य दर्शन में रहे हुए जीवों पर भी अनुग्रह करने की परिणति होती है,२६० इसलिए जिस जीव का जिस प्रकार कल्याण होने की संभावना हो, उसी प्रकार प्रवृत्ति करने का उपदेश भावनाज्ञान वाला देता है। जैसे किसी ने वैदिककुल में जन्म लिया हो,
और नास्तिक की तरह जीवन बिताता हो, तो भावनाज्ञान का उपदेशक उसे गायत्री-पाठ करने का उपदेश देगा, नवकारमंत्र का नहीं। अतिथिसत्कार का उपदेश देगा, जैनों को भोजन कराने का नहीं। उपाश्रय में जैनमुनि के व्याख्यान सुनने की प्रेरणा नहीं करेगा बल्कि हिन्दू सन्तों की रामायण कथा में जाने की प्रेरणा देगा। उसके ईष्टदेव के दर्शन आदि की प्रेरणा देगा। इस प्रकार वह व्यक्ति भी धार्मिक बनकर आर्यसंस्कृति की सुरक्षा करते हुए हिंसा, झूठ, चोरी, विषय कषाय आदि व्यसनों से मुक्त रहकर मोक्षमार्ग में आगे बढ़ता है। यदि उसे जैनधर्म का उपदेश दें, तो वह भड़क जाएगा। तात्विकधर्म की जिज्ञासावाले सिद्धराज जयसिंह को 'हेमचंद्रसूरि' ने सभी देवों की उपासना करने को कहा था तथा समकिती बने कुमारपाल को केवल वीतरागदेव और जैनधर्म की आराधना करने का उपदेश दिया था।
___ इस प्रकार सभी धर्मों के जीवों के लिए हितकारी प्रवृत्ति गंभीर मन वाले भावनाज्ञानी ही कर सकते हैं।
श्रुतज्ञान बीजरूप गेहूँ के स्थान पर है। चिंताज्ञान अंकरित गेहूँ के स्थान पर है तथा भावनाज्ञान फलरूप, गेहूँ रूप में दोनों के समान होने पर भी दोनों में अन्तर रहा हुआ है, उसी प्रकार 'आज्ञा ही प्रमाण है'- इस जिनवचन से श्रुतज्ञान में जो प्राथमिक कक्षा का ज्ञान होता है, उसमें और चिंताज्ञान के तथा उसके बाद होने वाले भावनाज्ञान में आज्ञा ही प्रमाण हैं- इस पद के अर्थ में अन्तर होता है। आज भावनाज्ञान का विकास करके सारे साम्प्रदायिक झगड़े समाप्त किए जा सकते हैं।
२८७. योगदीपिका, (षोडशकवृत्ति) -२६७ पेज, उ. यशोविजयजी
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