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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १७५ भावनाज्ञान से जाना हुआ पदार्थ ही जाना हुआ कहलाता है।"२६२ देशनाद्वात्रिंशिका में उ. यशोविजयजी ने बताया है- "तात्पर्यवृत्ति से सर्वत्र भगवान की आज्ञा को मान्य करने वाला ज्ञान भावनाज्ञान होता है।" भावनाज्ञान का फल बताते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं- “घास और संजीवनी - दोनों को चराने वाली स्त्री के दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है कि सभी ज्ञानों की साधना करते हुए व्यक्ति भावनाज्ञान को प्राप्त हो जाता है।"२८४ उ. यशोवियजयजी ने देशनाद्वात्रिंशका में भी इन्हीं सब बातों की चर्चा की हैं।२८५ हरिभद्रसूरि ने षोडशक में भी बताया है कि- "चारा खाने वाले और संजीवनी औषधि नहीं खाने वाले को संजीवनी खिलाने की वृत्ति से भावनाज्ञान में समापत्ति के कारण सभी जीवों के प्रति हितकारी वृत्ति की सूचना मिलती है।"२६६ चारिसंजीवनी के दृष्टान्त को उ. यशोविजयजी ने षोडशक की योगदीपिका नामक टीका में इस प्रकार स्पष्ट किया कि किसी स्त्री ने अपने पति को वश में करने के लिए किसी योगिनी से उपाय पूछा। उस योगिनी ने मंत्रतंत्र के प्रभाव से उस स्त्री के पति को बैल बना दिया। अब वह स्त्री बहुत दुःखी हुई। वह स्त्री बैलरूप धारी अपने पति को चारा खिलाती और पानी पिलाती। एक बार वह वटवृक्ष के नीचे बैल को लेकर बैठी हुई थी। उसी समय दो विद्याधरी वहाँ आई, बैल को देखकर एक विद्याधरी ने कहा कि यह कृत्रिम बैल है, स्वाभाविक नहीं। जब दूसरी विद्याधरी ने पूछा कि यह अपने मूल रूप में किस प्रकार आ सकता है? तो प्रथम विधाधरी ने कहा कि इस पेड़ के नीचे संजीवनी नामक औषधि है। जो यह बैल २८२. भावनानुगतस्य ज्ञानस्य तत्त्वतो ज्ञानत्वादिति। न हि श्रुतमय्या प्रज्ञया भावनादृष्टं ज्ञातं नामेति । धर्मबिन्दु (६/३०-३१) -हरिभद्रसूरि सर्वत्राज्ञापुरस्कारि ज्ञानं स्याद्भावनामयम् अशुद्धजात्यरत्नाभासमं तात्पर्यवृत्तितः।।१३।। -देशनाद्वात्रिंशिका -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका -उ. यशोविजयजी चारिसंजीविनीचारकारकज्ञाततोऽन्तिमे। सर्वत्रैव हिता वृत्तिर्गाम्भीर्यात्तत्त्वदर्शिनः ।।६२।। -अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी सर्वत्रैव हितावृत्तिः समापत्त्याऽनुरूपया। ज्ञाने संजीविनीचारज्ञातेन चरमे स्मृता ।।१५।। -देशनाद्वात्रिंशिका, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका-उ. यशोविजयजी चारिचरक-संजीवन्यचरकचारणविधानतश्वरमे । सर्वत्रहिता वृत्तिर्गाम्भीर्यातू समरसापत्त्या १११/११।। -षोडशक -हरिभद्रसूरि २८६. चा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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