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________________ १७४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री जैसे "हिंसामन्यस्य नाचरेतु", इस वाक्य का 'किसी भी जीव को पीड़ा नहीं देना'- यह अर्थ है। इसमें यह जिज्ञासा उठती है कि ऐसी स्थिति में श्रावक मन्दिर का निर्माण किस प्रकार करवा सकते हैं? साधु नदी को किस प्रकार पार कर सकते हैं ? उसी प्रकार लोच आदि में भी प्रयत्न कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि इन सबमे हिंसा की संभावना है। यह जिज्ञासा वाक्यार्थ है। 'अविधि से जिनालय निर्माण आदि कोई भी कार्य करें, तो वह हिंसा दोषरूप है, इसलिए ये सभी कार्य शास्त्रोक्त विधि और जयणापूर्वक करना चाहिए'- यह महावाक्यार्थ है। ___ जैसे संयमरक्षार्थ नदी पार करने हेतु शास्त्रदर्शित-विधि का पालन करने में भी परपीड़ा परिहार का भाव तो है ही। इससे यह फलित होता है कि प्रमाद, अजयणा, अविधि और मन की मलिनता आदि हिंसा के हेतु होने से नदी उतरने में, जिनालय-निर्माण आदि में होती बाह्य हिंसा से कर्मबंध नहीं होते हैं। ___ कोई भी प्रवृत्ति धर्मरूप बने या अधर्मरूप, इसमें हिंसा या अहिंसा का प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु यह महत्त्वपूर्ण है कि इस हेतु जिनाज्ञा है या नहीं। जिसमें हिंसा होती हो, वह त्याज्य और जिसमें हिंसा नहीं होती है, वह कर्तव्य, ऐसा एकांत नियम नहीं है, बल्कि जिसमें जिनाज्ञा का पालन हो, वही करने योग्य है और जो जिनाज्ञा अनुसार नहीं है, वह छोड़ने योग्य है। 'जिनाज्ञा ही धर्म का सार है'-यही ऐदंपर्यार्थ, रहस्यार्थ, परमार्थ एवं गूढार्थ है। भावनाज्ञान की दूसरी विशेषता विधि के प्रति बहुमान का भाव है। भावनाज्ञान विधि, द्रव्य दाता, पात्र आदि के प्रति अत्यंत आदरयुक्त होता है, जैसा आदरभाव श्रेयांसकुमार रेवतीश्राविका, सुलसाश्राविका, शालिभद्र के पूर्व भव के जीव का था। अब यहाँ भावनाज्ञान की तीसरी विशेषता 'जात्य रन विभा' को स्पष्ट किया जा रहा है। मिट्टी आदि का लेप करके गरम करने की प्रक्रिया के अभाव में अपरिशुद्ध होने पर भी श्रेष्ठ रत्न की कान्ति स्वभाव से ही अन्य रत्नों की कान्ति की अपेक्षा अधिक होती है, उसी प्रकार कर्मरज से मलिन भव्यजीव का भावनाज्ञान दूसरे ज्ञान से अधिक प्रकाश करने वाला होता है। भावनाज्ञान से जानी हुई वस्तु ही वास्तव में जानी हुई (ज्ञात) कहलाती है। धर्मक्रिया की भावनाज्ञानपूर्वक हो, तो ही शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्मबिंदु ग्रंथ में हरिभद्रसूरि ने कहा है- “भावनायुक्त ज्ञान ही वास्तव में ज्ञान है। श्रुतमय प्रज्ञा द्वारा जानी हुई वस्तु वास्तव में जानी हुई नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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