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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १७३ कथन भी स्वीकारना आवश्यक है। संग्रहनय की अपेक्षा से वेदान्तदर्शन का यह कथन भी सत्य है।
जीवत्व, सच्चिदानंदमयत्व आदि धर्मों की अपेक्षा से सभी जीव एक ही हैं। स्थानांग सूत्र में भी संग्रहनय की दृष्टि से 'एगे आया' यह सूत्र आया है।
इस प्रकार चिंताज्ञान विमर्शात्मक होने से किसी भी कथन पर विभिन्न दृष्टियों से विचार विमर्श कर उसे समझने का प्रयत्न करता है।
उपाध्याय यशोविजयजी भावनाज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिनाज्ञा को प्रधानता देने वाला ज्ञान ऐदंपर्य ज्ञान कहा जाता है, इसे भावनाज्ञान भी कहते हैं। इस ज्ञान में बहुमान भाव प्रधान होता है। ऐसा भावनायुक्त ज्ञान अपरिष्कारित होने पर भी बहुमूल्य श्रेष्ठ रत्न की कान्ति के समान है।२८०
'षोडशक' में हरिभद्रसूरि ने भी भावनाज्ञान की इसी प्रकार की परिभाषा
दी है। २१
सभी ज्ञेय पदार्थों को स्वीकार करने में सर्वज्ञ की आज्ञा ही प्रधान है, यह मानना ऐदंपर्य कहलाता है। तत्त्व तीन प्रकार के होते हैं- हेय, ज्ञेय और उपादेय। उसमें हेय तथा उपादेय पदार्थ का वास्तविक बोध निर्मल सम्यग्दर्शन वाले साधकों को मिथ्यात्व के क्षयोपशम से तथा दृष्टिवादोपदेशिक संज्ञा के प्रभाव से स्वतः, या गुरु के उपदेश से होता है, किंतु व्यक्ति में ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण कुछ तथ्यों में पूर्णतः संदेहरहित ज्ञान संभव नहीं होता है, जैसे अभव्य जीव अनंत है, निगोद में अनंत जीव हैं, जातिभव्य जीव भी अनंत हैं, अनंत जीव मोक्ष में गए हैं, जा रहे हैं और जाएंगे फिर भी वे जीव निगोद के एक शरीराश्रित जीवों की संख्या के मात्र अनंतवे भाग के बराबर हैं। इस प्रकार के जिन वचनो में संशय या भ्रम संभावित है। इन संशयों को दूर करने के लिए सर्वज्ञ के वचन ही प्रमाणभूत होते हैं। सभी प्रकार के ज्ञानों के प्रमाण में सर्वज्ञ के वचन ही प्रधान है।
ज्ञेय पदार्थों के ज्ञान में नयों की अपेक्षा से कथन चार प्रकार के होते हैं १. पदार्थ २. वाक्यार्थ ३. महावाक्यार्थ ४. ऐदंपर्यार्थ।
२८०. ऐदम्पर्यगतं यत्व विध्यादौ यत्नक्च्च यत्
तृतीयं तदशुद्धोच्च-जात्यरत्नविभानितम् ।।६७।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी ऐदमपर्यगतं यद्विध्यादौ यत्नवत्तथैवोच्चेः। एतत्तु भावनामयमशुद्ध सद्रत्नदीप्तिसमम् ।।। ।। -षोडशक -११/६ -हरिभद्रसूरि
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