________________
१७२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
कहलाता है। जैसे आत्मा नित्य एवं सच्चिदानंदरूप है- यह व्याख्या मात्र वाक्य के पद का अर्थ करती है, किन्तु तद्विषयक अन्य अभिप्रायों के उपस्थित होने पर जो शंका आदि उत्पन्न होती है, उनका निवारण करने वाली व्याख्या महावाक्यार्थ कहलाती है। जैसे 'यदि आत्मा नित्य एवं सच्चिदानंदरूप है', तो फिर आत्मा में कर्तृत्त्व और भोक्तृत्त्व आदि गुण किस प्रकार संभव होंगे? आत्मा में कर्तृत्त्व, भोक्तृत्त्व आदि गुण हैं, यह कथन किस नय की अपेक्षा से कहा गया है? इस संदेह का समाधान महावाक्यार्थ से होता है। जैसे- 'आत्मा नित्य है' यह बात द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से कही गई है तथा कर्तृत्त्व भोक्तृत्त्व पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से है। यह कथन महावाक्यार्थ है । यही चिन्ताज्ञान भी है। ऐसा ज्ञान अत्यंत सूक्ष्मबुद्धिपूर्वक ही गम्य है। अर्थबोध से किसी प्रकार का विसंवाद न हो, इस प्रकार के सभी प्रमाणों और नयों से गर्भित युक्तियों से कथन करना या अर्थ का निर्धारण करना चिन्ताज्ञान है। जैसे तेल का बिंदु छोटा होने पर भी पानी में फैलता जाता है, उसी प्रकार चिन्ताज्ञान भी शास्त्रीय प्रमाणों तथा नय - निक्षेप आदि की युक्तियों से विस्तार को प्राप्त होता है। यह चिंताज्ञान ही व्यापक बनता हुआ भावनाज्ञान को उत्पन्न करता है। यह ज्ञान सूक्ष्म बुद्धिगम्य चिन्तन से युक्त होने के कारण 'घटोऽस्ति' इतना श्रवण करने पर ही तुरंत विचार करता है कि घट का अस्तित्त्व स्वद्रव्य देश-काल आदि के आधार पर है, या परद्रव्य देश काल आदि के आधार पर आदि। तुरंत क्षयोपशम के प्रभाव से यह घट स्वद्रव्य क्षेत्र - काल आदि की अपेक्षा सत् है, किंतु परद्रव्य क्षेत्र - काल आदि की अपेक्षा असत् है - ऐसा निर्णय करता है, इसलिए स्यादस्त्येव स्यन्नास्त्येव आदि रूप सप्तभंगी की उसके चिंतन में स्फुरणा होती है।
चिंताज्ञान वाले को आग्रह या कदाग्रह नहीं होता है। इसका कारण यह है कि वह नय - निक्षेप एवं प्रमाण को जानता है । जैसे स्वदर्शन में जो बात कही गई है, वह अमुक नय की अपेक्षा से कही गई हैं; उसी प्रकार अन्य दर्शन में भी जो बात कही गई है, वह अमुक नय की अपेक्षा से कही गई है। उदाहरण के रूप में पर के प्रति अतिशय राग भवभ्रमण का प्रधान कारण है, अतः संसार के भोगों के प्रति तीव्र आसक्ति को, या ममत्व को नष्ट करने के लिए 'सर्वं क्षणिकं'यह बौद्धदर्शन का सिद्धान्त भी उपयोगी है। जैनदर्शन में भी पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से तो सभी वस्तुएं क्षणिक या विनाशशील मानी गई हैं। जैनदर्शन की साधना में भी अनित्यभावना बताई गई है। इस अपेक्षा से जैनदर्शन भी बौद्धदर्शन सर्वक्षणिकं सिद्धान्त को पर्यायार्थिकनय रूप में स्वीकार करता है। इसी प्रकार दूसरे जीवों के प्रति द्वेष दूर करने के लिए 'सर्वखल्विदं ब्रह्म' - यह वेदान्त दर्शन का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org